Book Title: Karmaprakruti
Author(s): Abhaynanda Acharya, Gokulchandra Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभयचन्द्रसिद्धान्तचक्रवर्तीकृत कर्मप्रकृति सम्पादन-अनुवाद हॉ० बोकलयर जैन नपी. संशोषित मूल्य E Rs. 10/ NewO.lt भारतीय मानपीठ प्रकाशन Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रास्ताविक कन्नड़ प्रान्तीय ताड़पत्रीय ग्रन्थसूची में अभयचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती कृत कर्मप्रकृतिको सात पापिया रेषयदि गया है। से पर लेखन काल नहीं है। सभी की लिपि कन्नड है और भाषा संस्कृत । यह एक लघु किन्तु महत्त्वपूर्ण कृति है । इसमें सरल संस्कृत गद्य में संक्षेपमें जैन कर्म सिद्धान्तका प्रतिपादन किया गया है। पहली बार मैंने इराका सम्पादन और हिन्दी अनुवाद किया है। विषयके आधार पर मैंने पूरी कृतिको छोटे-छोटे दो सौ बत्तीस वाक्य खण्डों में विभाजित किया है । प्रारम्भमें कर्मके द्रव्यकर्म, भावकर्म, और नोकर्म ये तीन भेद दिये गये उसके बाद द्रव्यकर्मके प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश ये चार भेद बताये है। प्रकृतिके मूलप्रकृति, उत्तरप्रकृति और उत्तरोत्तर प्रकृति, ये तोन भेद हैं। मूलप्रकृति ज्ञानावरणीय आदिके भेदसे आठ प्रकारकी है और उत्तरप्रकृतिके एक सौ अड़तालीस भेद हैं। अभयचन्द्रने बहुत ही सन्तुलित शब्दोंमें इन सबका परिचय दिया है । उत्तरोतर प्रकृति बन्धके विषय में कहा गया है कि इसे त्रचन द्वारा कहना कठिन है । इसके बाद स्थिति, अनुभाग और प्रदेश बन्धका वर्णन हैं। भावकर्म और नोकर्मके विषयमें एक-एक वाक्य में कह कर आगे संसारी और मुक्त जीवका स्वरूप तथा जीवके क्रमिक विकासकी प्रक्रिया से सम्बन्धित पाँच प्रकारकी लब्धियों तथा चौदह गुणस्थानों का वर्णन किया गया है। विषयके अतिरिक्त भाषाका लालित्य और शैलीको प्रवाहमयताके कारण प्रस्तुत कृतिका महत्त्व और अधिक बढ़ जाता है । साधारण संस्कृतका जानकार व्यक्ति भी अभय चन्द्रकी इस कृति जैन कर्म सिद्धान्तकी पर्याप्त जानकारी प्राप्त कर सकता है । कर्मप्रकृति के प्रारम्भ या जन्तमें अभयचन्द्रने अपने विषयमें विशेष जानकारी नहीं दी । अन्तमें केवल इतना लिखा है- 1 Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मप्रकृति "कृतिरियम् अभयचन्द्रसिद्धान्तचक्रवर्तिनः ।" अभयचन्द्र सिद्धान्तचक्रावतीके विषयमें कई शिलालेखोंसे जानकारी मिलती है। मूल संघ, देशिय गण, पुस्तक गच्छ, कोण्डकुन्दान्वयको गलेश्वरी शाखाके श्रीसमुदायमें माघनन्दि भट्टारक हुए। उनके नेमिचन्द्र भट्टारका नधा अभयचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती ये दो शिष्य थे। अभमचन्द्र बालचन्द्र पंजितके श्रुतगुरु थे ।' हलेबीद्ध के एक सस्कृत और कन्नड मिश्रित शिलालेखमें अभयचन्द्र सिद्धान्तचक्रवकि समाविमरणका उल्लेख है--यह लेख शक संवत् १२०१ - १२७१ ईसघीका है। हलेबीई के ही एक अन्य शिलालेखमें अभयचन्द्र के प्रिय शिष्य बालचन्म के समाधिमरणका उल्लेख है। यह लेख शक संवत् ११९७, सन् १२७४ ई सका है। इन दोनों अभिलेखोंसे अभयवन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्तीका समय ईसाको सेरहवीं शती प्रमाणित होता है। वे सम्भवतया १३वीं शतीके प्रारम्भमें हुए और ७९ वर्ष तक जीवित रहे। __ सबन्नूरके एक शिलालेख ( शक १३०६ ) में श्रुतमुनिको अभयचन्द्रका शिष्य बताया गया है। भारंगीके एक शिलालेखमें कहा गया है कि राय राजगुरु मण्डलाचार्य महावाद नादीदधर रायवादि पितामह अभयचन्द्र सिद्धान्तदेवका पुराना ( ज्येष्ठ ) शिष्य बुल्ल गौड़ था, जिसका पुत्र गोप गौड़ नागर खण्डका शासक था । नागर खण्ड कर्णाटक देशमें था।" बुल्ल गौड़के समाधिमरणका उल्लेख भारंगीके एक अन्य शिलालेख में है, जिसमें कहा गया है कि बुल्ल या बुल्लुपको ग्रह अवसर अभयचन्द्रकी कुपास से प्राप्त हुआ था।' १. E.C. V. Bclut td, m. I33 जैन शिलालेख संग्रह भाग ३, लेख ५२४ २. Ibid no. 131, 132 लेख ।१४ ३. वही ४. L. C. IV. Hursur t], 110. 123 लेख ५८४ '.. E. C. VIHE. Sorah tl, 10, 329 लेख.३१० ६. L.C. VIII. Sorab t1. no, 330 लेख ६४६ Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रास्ताविक हुम्मचके एक शिलालेखमें अभयचन्द्रको चैत्यवासी कहा गया है । अभयचन्द्रके समाधिमरणसे सम्बन्धित उपर्युक्त शिलालेखमें कहा गया है कि वह छन्द, न्याय, निघण्टु, शब्द, समय, अलंकार, भूचक्र, प्रमाणशास्त्र आदिके प्रकाण्ड पण्डित थे । इसी तरह श्रुतगनिने परभागमसार ( १२६३ शक ) के अन्त में अपना परिचय देते हुए लिखा है-- "सहागम-गरमागम-तुमागम-णिरवसेसवेदी हु । विनिद-सबलगणवादी जय चिरं अभयमूरि-सिद्धती' ।" इसरो भी अभय चन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्तीके व्यक्तित्व पर प्रकाश पड़ता है। कर्मप्रति सम्मान और हिन्दी अनु", मैंने सन् १९६५ में किया था। कई कारणों से यह अब प्रकाशित हो पायी है। इसके सम्पादन प्रकाशनमें जिनका भी योगायोग है, उन सबका आभारी हूँ। 'सत्यशासन-परीक्षा' तथा 'यशस्तिलकका सांस्कृतिक अध्ययन' के बाद पुस्तक रूपमें प्रकाशित यह मेरी तीसरी कृति है । आगा हूँ विज-जन इसमें रहीं श्रुटियोंकी ओर ध्यान दिलाते हुए, इसका समुचित मूल्यांकन करेंगे। वाराणसी ३० सितम्बर १९६८ --गोकुलचन्द्र जैन GE.C. VIII Nagar t! 10. 46 जैन शिक्षालग्न संमद भाग तेख ६६७ Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय-सूची ममा विषय मंगलाचरण कर्मके भेद द्रव्य कर्मके भेद प्रक्रतिबन्ध प्रकृतिका लक्षण प्रकृतिके भेद मूल प्रकृतिके भेद सानाबरणीयका लक्षण और दृष्टान्त दर्शनावरणीयका लक्षण और दृष्टान्त वेदनीयका लक्षण और दृष्टान्त मोहनीयका लक्षण और दृष्टान्त आयुका लक्षण और दृष्टान्त मामका लक्षण और दृष्टान्त गोत्रका लक्षण और दृष्टान्त अन्तरायका लक्षण और दृष्टान्त उत्तर प्रकृतिके भेद ज्ञानावरणीयन्त्री पाँच प्रकृतियाँ मतिज्ञानावरणीयका लक्षण श्रुतज्ञानावरणीयका लक्षण अवधिज्ञानावरणीयका लक्षण मनःपर्ययज्ञानावरणीयका लक्षण Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय-सूची केवलज्ञानावरणीयका लक्षण दर्शनावरणीयके नव भेद चक्षुर्दर्शनावरणीयका लक्षण अबक्षुर्दचनावरणीयका लक्षण अचनिदर्शनावरणीयका लक्षण केत्रलदर्शनावरणीयका लक्षण निद्राका लक्षण निद्रानिद्राका लक्षण प्रथलाका लक्षण प्रचलाप्रचलाका लक्षण स्त्यानद्धिका लक्षण वेदनीयके भेद साता-वेदनीयका लक्षण असाता-वेदनीयका लक्षण मोहनीयके दो भेद दर्शन-मोहनीयके तीन भेद मिथ्यात्वका लक्षण सग्यग्मिथ्यात्वका लक्षण सम्यक्त्व प्रकृतिका लक्षण चारित्र-मोहनीयके दो भेद कषायके सोलह भेद अनन्तानुबन्धि-कषाय अप्रत्याख्यान-कषाय प्रत्यास्यान-कपाय संज्वलन-कषाय अनन्तानुबन्धि-कषायोंकी शक्ति अप्रत्याख्यान-कषायोंकी शक्ति प्रत्याख्यान-कषायोंको शक्ति Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मप्रकृति. संज्वलन कापायोंकी शक्ति हास्यका लक्षण रसिका लक्षण अरतिका लक्षण शोमाण भयका लाण जुगासाका लक्षण स्त्री-वंदका लक्षण पंवेदका लक्षण नपुगक बंदका लक्षण आयुके चार भेद तरकागका लक्षण तिर्यगायुका लक्षण मनुष्यानुका लक्षण देवाका लक्षण नामकर्मकी व्यालीस प्रकृतियाँ नामकर्मकी तेरानन्त्रे पिण्ड प्रकुतियाँ गति-नाम कर्म के चार भेद नरकगतिका लक्षण तिर्यग्गतिका लक्षण मनुष्यगतिका लक्षण देवगतिका लक्षण गतिन्नामकर्म का सामान्य लक्षण जाति-नामक्रमके पांच भेद एकेन्द्रिय-जातिका लक्षण दीन्द्रिय-जातिका लक्षण बीन्द्रिय-जातिका लक्षण चतुरिन्द्रिय-जातिका लक्षण Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय-सूची -...-.msmar पंचेन्द्रिय-जातिका लक्षण शरीर-नाम कर्मके पांच भेद औदारिक शरीर-नाम कर्मका लक्षण बैंक्रियक शरीर-नाम कर्मका लक्षण आहारक शरीर-नाम कमका लक्षण संजस शरीर-नाम क्रमवा लक्षण कार्मण शरीर-नाम कर्मका लक्षण बन्धन-नाम कर्गके पांच भेद औदारिक शरीर-बन्धका लाण वैक्रियक, आहारक, तैजस तथा कण शरीर-बन्धका लक्षणा संघात-नाम क्रम के पांच भेद औदारिक शरोर-संपात का लक्षण बैंक्रिया, आहारक, तैजस तथा कार्मण शरीर संघात का लक्षण संस्थान-नाम कर्मके छह भेद समयत्तुरख-संस्थानका लक्षण म्यग्नोच-संस्थानका लक्षण स्वाति-संस्थानका लक्षण कुजक-संस्थान का लक्षण वामन-संस्थानका लक्षण हुँष्ठक-संस्थान का लक्षण अंगोपांग-नाम कर्मके तीन भेद औदारिक शरीर-अंगोपांगका लक्षण वक्रियक तथा आहारक शरीर-अंगोपांगका लक्षण संहनन-नाम कर्मके छह भेद अजयुषभनाराच संहननका लक्षण वयनाराच संहननका लक्षण नाराव संहननका लक्षण अर्धनाराच संहननका लक्षण H AALH... H ." . Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 18 कर्मप्रकृति कति संहननका लक्षण असंपादिका संहननका लक्षण वर्ण नाम कर्मके पाँच भेद वर्ण नाम कर्मका सामान्य लक्षण नाम कर्मके दो भेद गन्ध नाम कर्मका लक्षण रस नाम कर्मके पांच भेद रस नाम कर्मका सामान्य लक्षण लक्षण नामक रसका मधुरमें अन्तर्भाव स्पर्श नाम कर्मके आठ भेद स्पर्श नाम कर्मका कार्य आनुपूर्वी नाम कर्मके चार भेद और उनका कार्य आनुपूर्वी नाम कर्मका लक्षण भ अगुरुलघु नाम उपघात नाम कर्मका लक्षण परघात नाम कर्मका लक्षण तर नाम कर्मका लक्षण उद्योत नाम कर्मका लक्षण उच्छ्वास नाम कर्मका लक्षण विहायोगति नाम कर्मके दो भेद प्रशस्त विहायोगतिका लक्षण अप्रशस्त विहायोगतिका लक्षण स नाम कर्मका लक्षण और कार्य स्थावर नाम कर्मका लक्षण और कार्य बादर नाम कर्मका लक्षण और कार्य सूक्ष्म नाम कर्मका लक्षण पर्याप्त नाम कर्मका लक्षण अपर्याप्त नाम कर्मका लक्षण ૦૪ १०५ १०६ १०७ 204 १०९ ११० १११ ११२ ११३ ११४ ११५ ११६ ११७ ११८ ११९ १२० १२१ १२२ १२३ १२४ १२५ १२६ १९७ १२८ १२९ १३० १३१ Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय-सूची १३२ १३८ ..१४३ १४५ पर्याप्तिके छह भेद आहार-पर्याप्तिका लक्षण और दृष्टान्त भारीर पर्याप्तिका लक्षण और दृष्टान्त इन्द्रिय पर्याप्तिका लक्षण और दृष्टान्त श्वासोच्छ्वास पर्याप्तिका लक्षण भाषा पर्याप्तिका लक्षण मनःपर्याप्तिका लक्षण प्रत्येक शरीर नाम कर्मका लक्षण साधारण शरीर नाम कर्मका लक्षण स्थिर नाम कमका लक्षण अस्थिर नाम कर्मका लक्षण दाभ नाम कर्मका लक्षण সহ্ম লাম কাকা ৮ दुर्भग नाम कर्मका लक्षण सुभग नाम कर्मका लक्षण सुस्वर नाम कर्मका लक्षण दुःस्वर नाम कमका लक्षण आदेय नाम कर्मका लक्षण अनादेय नाम कर्मका लक्षण यशस्वीति नाम कर्मका लक्षण अयशस्कीति नाम कर्मका लक्षण निर्माण नाम कर्मका लक्षण तीर्थकर नाम कर्मका लक्षण गोत्र कर्म के दो भेद उच्च गोत्र का लक्षण नीच गोयका लक्षण अन्तराय कर्मके पांच भेद दानान्तरायका लक्षण १५३ १५४ १५५ १५६ १५७ १५८ Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ; 2 कामान्तरायका लक्षण भोगान्तरायका लक्षण उपभोगान्त रायका लक्षण वीर्यान्तरायका लक्षण उत्तर प्रकृतियोंका उपसंहार स्थितिबन्ध स्थितिका लक्षण ज्ञानावरणीय दर्शनावरणीय, वेदनीय तथा अन्तरायकी उत्कृष्ट कर्मप्रकृति अनुभागबन्ध अनुभागका लक्षण घाति कमका अनुभाग अघाति कमकी दर्शनमोहनीयको उत्कृष्ट स्थिति चारित्रमोहन की उत्कृषु स्थिति नाम और गोत्रको उत्कृष्ट स्थिति आयु कर्मको उत्कृष्ट स्थिति वेदनीयको जघन्य स्थिति नाम और गांवको जघन्य स्थिति ज्ञानावरणीय दर्शनावरणरेय मोहतोय, आयु और अन्तराय को जवन्य स्थिति 'अशूभ तथा शुभ प्रकुलियोंका प्रदेश अन्ध प्रदेश बन्धका लक्षण अनुभाग १६० १६१ १६२ ** १६४ १६७ स्थिति १६९ १७० १७१ ૭૨ १७३ १७४ १७५ १७६ १८० १८१ १८२ १८५ Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाव कर्म मोव कर्मका लक्षण भाव कर्मोका परिमाण नोकर्म नोकर्मका लक्षण संसारी जीवका लक्षण मुक्त जtत्रका लक्षण संसारी जीवोंके दो भेट विवय-सूची भव्य जीवका लक्षण भव्य जीवोंके चौदह गुणस्थान अभव्य जीववा लक्षण अन्यों के करणत्रयका अभाव मिथ्यात्व गुणस्थान मिध्यादृष्टि सम्यक्त्वका कथन क्षयोपशमलब्धि विशुद्धिलब्धि देशनालब्धि प्रायोग्यता लक्ष्य करणलब्धि करणके तीन भेद अधःप्रवृत्तकरणका काल अपूर्वकरणका काल अनिवृत्तिकरणका काल तीनों करणों का सम्मिलित काल करण में त्रिशुद्धि अधःप्रवृत्त करण कालमें विशुद्धि परिणाम ટ १८९ १९० १९१ १९२ १९३ १५ १५ १९५ १९६ १९७ १९८ १९९ २०० २०१ २०२ २०३ २०४ ૨૦૧ २०६ २०७ २०८ २०१ २१० २११ Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१२ फर्मप्रकृति अधःप्रवृत्तकरणकी अंकसंदृष्टि अपूर्वकरण अनिवृत्तिकरण अनिवृत्तिकरणके विषयमें विशेष प्रथमोपशम सम्यक्त्वका काल तथा सासादन गुणस्थान सासादन गुणस्थानका काल सम्पग्मिटमादृष्टि नामक तीसरा गुणस्थान सीसरे गुणस्थानको स्थिति असंयत सम्यग्दृष्टि नामक पौथा गुणस्थान देशसंयम नामक पाँचवाँ गुणस्थान प्रमत्तसंयत नामक छठा गृणस्थान अप्रमत्तसंयत नामफ सातवाँ गुणस्थान सातिशय अप्रमत्त का लक्षण अपूर्वकरण नामक आठवां गुणस्थान अनिवृत्तिकरण नामक नवम गुणस्थान सूक्ष्मसापराय नामक दशम गुणस्थान उपशान्तकषाय नामक ग्यारहाँ गुणस्थान क्षीणकषाय नामक बारहवाँ गुणस्थान सयोगकेवलि नामक तेरहवां गुणस्थान अयोगवेवलि नामक चौदहवाँ गुणस्थान मुस्तावस्थाका स्वरूप २१७ २१८ २१९ २२० २२१ २२२ २२३ २२४ २२५ २२६ २२७ २२८ Nover Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमद्-अभयचन्द्रसिद्धान्तचक्रवतिविरचिता कर्मप्रकृतिः [ मङ्गलाचरणम् ] प्रक्षोणावरणद्वैतमोहप्रत्यूहकर्मणे । अनन्तानन्तघी सृष्टिसुखवीर्यात्मने नमः ॥ [ १. कर्मणः विष्यम् 1 आत्मनः प्रदेशेषु बद्धं कर्म द्रव्यकर्म भावकर्म नोकर्म चेति त्रिविधम् । [ २. द्रव्यकर्मणः चातुर्विध्यम् ] तत्र प्रकृतिस्थित्यनुभाग प्रदेशभेदेन द्रव्यकर्म चतुविधम् । मंगलाचरण ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अन्तराय इन चार घातिकर्मोंको नाश करके अनन्तानन्त ज्ञान, दर्शन, सुख और वीर्य इन आत्मीय गुणों को प्राप्त करनेवाले आत्मा ( परमात्मा ) के लिए नमस्कार है । १. कर्मके तीन भेद आत्माके प्रदेशों में बद्ध कर्म तीन प्रकारका है - १. द्रव्यकर्म, २. भावकर्म और ३, नोकर्म । २. द्रव्यकर्मके भेद अव्यकर्म प्रकृति, स्थिति, अनुभाग तथा प्रदेशके भेदसे चार तरहका है । Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मप्रकृतिः प्रकृतिबन्धः [ ३. प्रकृतेः स्वरूपम् ] . तत्र ज्ञानप्रच्छादनाविस्वभावः प्रकृतिः। [ ४. प्रकृतेः विध्यम् ] सा मूल प्रकृतिरुत्तरप्रकृतिरुत्तरोसरप्रकृतिरिति त्रिधा। मूलप्रकृतयः [ ५. मूलप्रकृतेरष्ट भयाः ] तत्र ज्ञानावरणीयं वर्शनावरणीय वेदनीय मोहनीयमायुष्यं नाम गोत्र. मन्तरायश्चेति मूलप्रकृतिरष्टधा। [ ६. ज्ञानावरणीयस्य लक्षणम् उदाहरणं च ] तत्रात्मनो ज्ञानं विशेषग्रहणमाषणोतीति ज्ञानावरणीयं इलक्षण काण्डपटवत् । ३. प्रकृतिका स्वरूप ज्ञानको ढंकना आदि स्वभाव प्रकृति है । ४. प्रकृतिके भेद वह मूल प्रकृति, उत्तर प्रकृति और उत्तरोत्तर प्रकृति, इस तरह तीन प्रकारको है। ५. मूल प्रकृतिके आठ भेद उनमें ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र और अन्तराय ये आठ मूल प्रकृतिके भेद हैं । ६. ज्ञानावरणीयका लक्षण और उदाहरण उक्त आठ भेदों में पतले रेशमी वस्त्रको तरह जो आत्माके विशेषग्रहण रूप ज्ञानगुण को टैंकता है, वह ज्ञानावरणीय है। Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ --] कर्मप्रकृतिः [७. दर्शनावरणीयस्य लक्षणम् उदाहरणं च ] दर्शन तामणगामि टावरणीय प्रतिहारवत् । [८. वेदनीयस्य लक्षणम् उदाहरणं च ] सुखं दुःखं वा इन्द्रियहार्वेदयतीति वेदनीयं गुडशितखड्गधारावत् । _[ ९. मोहनीयस्य लक्षणम् उदाहरणं च ] आत्मानं मोहयतीति मोहनीयं मधवत् । [१०. आयुषः लक्षणम् उदाहरणं च ] शरीर आत्मानभेति धारयतोत्यायुष्यं शृङ्खलावत् । [११. नामकर्मणः लक्षणम् उदाहरणं च ] नानायोनिषु नारकादिपर्यायरात्मानं नमसि-शब्दयतीति नाम चित्र कारवत् । ७. दर्शनावरणीयका लक्षण और उदाहरण प्रतिहार की तरह जो आत्माके सामान्यग्रहणरूप दर्शन गुणको रोकता है, वह दर्शनावरणीय है। ८. वेदनीयका लक्षण और अन्दाहरण गड-लपेटी तलवार को धारके समान जो सुख अथवा दःस्त्रको इन्द्रियों के द्वारा अनुभव कराये, वह वेदनीय है। ९. मोहनीयका लक्षण और उदाहरण शराबकी तरह जो आत्माको मोहित करे, वह मोहनीय है। १०, आयुक्ता लक्षण और उदाहरण श्रृंखलाकी तरह जो शरीरमें आत्माको रोक रखता है, वह आय कम है। ११. नाम कर्मका लक्षण और उदाहरण चित्रकार की तरह जो आत्माको नाना योनियों में नरकादि पर्यायों द्वारा नामांकित कराता है, वह नाम कर्म है। Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१६ मप्रकृतिः [१२. गोत्रस्य लक्षणम् उदाहरणं ] उच्चनीचतुलनामा नेपाल इति गोकुम्भकारबत् । [ १३. अन्तरायस्प लक्षणम् उदाहरणं च ] बामाविविघ्नं कर्तुमन्तरं पातुपात्रादीनां मध्यमेतीत्यन्तरायो भाडारिकवत् । उत्तरप्रकृतयः [ १४. उत्तरप्रकृतिनां भेदाः ] उत्तरप्रकृतयोप्रवत्वारिंशदुत्तरशतम् । तद्यथा ज्ञानातरणीयम् [ १५. ज्ञानावर गोयस्य पञ्च प्रकृतयः ] मतिज्ञानाबरणीयं श्रुतज्ञानावरणीयमवधिमानावरणीयं मनःपर्यय मानावरणीयं केवलज्ञानावरणीयं चेति ज्ञानावरणीयस्य प्रकृतयः पञ्च। १२. गोत्र कर्मका लक्षण और उदाहरण कम्भकारको तरह जो आत्माको उच्च अथवा नीच कुलके रूपमें व्यवहृत कराता है, वह गोत्र कर्म है । १३. अन्तराय कर्मका लक्षण और उदाहरण भण्डारीको तरह जो दाता और पात्र आदिके वोचमें आकर आत्मा के दान आदि में विघ्न डालता है, वह अन्तराय कर्म है । १४. उत्ता प्रकृतियोंको भेद उत्तर प्रकृतियाँ एक सौ अड़तालीस हैं ! वे इस प्रकार हैं(१५. शानावरणीयी पाँच प्रकृतियाँ मतिज्ञानावरणीय, श्रुतज्ञानावरणीय, अवधिज्ञानावरणीय, मनापर्ययशानावरणीय तथा केवलज्ञानावरणीय, ये पांच ज्ञानावरणीयकी प्रकृतियाँ हैं। Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -१८] कर्मप्रकृतिः । [१६. मतिज्ञानावरणीयस्य स्वरूपम् ] . तत्र पञ्चभिरिन्द्रियमनसा च मननं ज्ञानं मतिज्ञानं तदावृणोतीहि मतिज्ञानावरणीयम् । । [१७. श्रुतशानावरणीयस्य स्वरूपम् ] मतिज्ञानगृहीतार्थादन्यस्यास्य ज्ञानं श्रुतज्ञानं तवावृणोतोति श्रुतज्ञाना वरणीयम् । [ १८. अवधिज्ञानावरणीयम्य स्वरूपम् ] वर्णगन्धरसस्पर्शयुक्तसामान्यपुदगलद्रव्यं तत्संबन्धिसंसारीजीवद्रव्याणि च देशान्तरस्थानि कालान्तरस्थानि च ब्रट्यक्षेत्रकालभवभावानवधीकृत्य यत्प्रत्यक्ष जानातीत्यवधिज्ञानं तवाणोतोत्यवधिशानावरणीयम् । १६. मतिज्ञानावरणीयका लक्षण पाँच इन्द्रियों तथा मनकी सहायतासे होनेवाला मननरूप ज्ञान मतिज्ञान है, उसे जो ढंकता है वह मतिज्ञानावरणीय है। १७. श्रुतज्ञानावरणीयका लक्षण मतिज्ञान-द्वारा ग्रहण किये गये अर्थसे भिन्न अर्थका ज्ञान श्रुतज्ञान है, उसे जो आवृत करता है वह श्रुतज्ञानावरणीय है । १८. अवधिज्ञानावरणीयका स्वरूप भिन्न देश तथा भिन्न काल में स्थित वर्ण, गन्ध, रम और स्पर्श युक्त सामान्य पुद्गल द्रव्य तथा पुद्गल द्रव्यके सम्बन्धसे युक्त संसारी जीव द्रव्योंको जो द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव और भावको मर्यादा लेकर प्रत्यक्ष जानता है, वह अवधिज्ञान कहलाता है, उसका आवरण करनेवाला अवधिज्ञानाबरणांप है। Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मप्रकृतिः [१९[ १९. मनःगर्यनज्ञानावरणीयस्य स्वरूपम् ] परेषां मनसि वर्तमानमर्थ यज्जानाति तन्मनःपयंयज्ञानं तवाणो तीति मनःपर्ययज्ञानावरणीयम् । [ २०. केवलज्ञानादरणीयस्य स्वरूपम् ] इन्द्रियाणि प्रकाशं मनश्चापेक्ष्य त्रिकालगोधरलोकसफलपदार्थानां युगपवधभासनं केवलज्ञानं तदावृणोतीति केवलज्ञानावरणीयम् । दर्शनावरणीयम् [ २१. दर्शनावरणीयस्य नव प्रकृतयः ] चक्षुर्दर्शनावरणीयमचक्षुर्दर्शनावरणीयमधिदर्शनावरणीयं केवलवर्शनावरणीयं निद्रा निवानिद्रा प्रचला प्रचलाप्रचला स्त्यानद्धिरिति दर्शनावरणीपं नवधा। १९. मनःपर्ययज्ञानाबरणीयका स्वरूप दूसरोंके मनमें स्थित अर्थको जो जानता है, वह मनःपर्ययज्ञान है, उसे जो रोकता है, वह मनःपर्ययज्ञानाबरणीय है। २०. केवलज्ञानावरणीयका स्वरूप इन्द्रिय, प्रकाश और मनकी सहायताके बिना त्रिकाल गोचर लोक तथा अलोकके समस्त पदार्थोंका एक साथ अबभास ( ज्ञान ) केवल ज्ञान है, उसे जो आवृत करता है, वह केवलज्ञानावरणीय है। २१. दर्शनावरणीयक नब भेद चक्षुदर्शनावरणीय, अचक्षुदर्शनावरणीय, अवधिदर्शनावरणीय, केवलदर्शनावरणीय, निद्रा, निद्रानिद्रा, प्रचला, प्रचलाप्रचला तथा स्त्यानगृद्धि ये नौ दर्शनावरणीयके भेद है। Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मप्रकृतिः [ २२. चक्षुदर्शनावरणीयस्य स्वरूपम् ] तत्र चक्षुषा वस्तुसामान्यग्रहणं चक्षुवंशनं तवावृणोतीति वक्षुक्र्शना वरणीयम् । [ २३. अत्रभुदर्शनावरणीयस्य स्वरूपम् ] शोषैः स्पर्शनादोन्द्रियैमनसा च वस्तुसामान्यग्रहणमचक्षुदर्शनं तदावणो तीत्यचक्षुर्वर्शनावरणीयम् । [ २४. अवधिदर्शनावरणीयस्य स्वरूपम् | रूपिसामान्यग्रहणमवधिदर्शनं तवावृणोतोश्यवधिदर्शनावरणीयम् । [ २५. केवलदर्शनावरणीयस्य स्वरूपम् ] समस्तवस्तुसामान्यग्रहणं केवलवर्शनं तदावृणोतीति केबलवर्शनावरणीयम् । २२. चक्षुदर्शनावरणीयका स्वरूप चक्षु द्वारा वस्तुका सामान्य ग्रहण चक्षुदर्शन कहलाता है, उसका आवरण चक्षुदर्शनावरणीय है। २३. अचक्षुदर्शनावरणीयका स्वरूप चक्षुके अतिरिक्त शेष स्पर्शन आदि इन्द्रियों तथा मनके द्वारा वस्तुका सामान्यग्रहण अचक्षुदर्शन है, उसका आवरण अचक्षुदर्शनावर णोय है। २४. अवधिदर्शनावरणीयका स्वरूप रूपी पदार्थों का सामान्यग्रहण अवधिदर्शन है, उसका आवरण अवधिदर्शनावरणीय है। २५. केवलदईनावरणीयका स्वरूप समस्त वस्तुओंका सामान्यग्नहण केवलदर्शन है, उसका आवरण कैवलदर्शनावरणीय है। Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मप्रकृति [२६.. [२६. निद्रायाः स्वरूपम् ] यतो गच्छतः स्पानं तिष्ठत उपवेशनमुपविक्षतशयनं च भवति सा निद्रा। [ २७. निद्रानिद्रायाः स्वरूपम् ] जापापितेऽपि लोभनमुनागिन न शक्नोति यतम्मा निद्रानिद्रा। [ २८. प्रचलायाः स्वरूपम् ] यत ईषन्मोल्य स्वपिति सुनोऽपोषपोषज्नानाति सा प्रचला। [ २९. प्रचलामचलायाः स्वरूपम् ] यतो निद्रायमाणे लाला बहत्यमानि चलन्ति सा प्रचलाप्रथला। २६. निद्राका स्वरूप जिसके कारण चलते, किसी स्थानपर ठहरते, बिस्तर पर बैठते नोंद आती है, उसे निद्रा कहते हैं। २७. निद्रानिद्राका स्वरूप जिसके कारण उठाये जाने ( जमाये जाने ) पर भी आँखें न खुल सके, उसे निद्रानिद्रा कहते हैं । २८. प्रचलाका स्वरूप जिसके कारण कुछ आँख खोलकर सोये तथा सोते हुए भी कुछ कुछ जानता रहे, उसे प्रचला कहते हैं। २९. प्रचलाप्रबलाका स्वरूप जिसके कारण सोते हुए लार बहे तथा अंग चलें, उसे प्रचलाप्रचला कहते हैं। Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ] कर्मप्रकृतिः [ ३०. स्त्यानगृद्धेः स्वरूपम् । यस उत्यापितेपि पुनः पुनः स्वपिति निद्रायमाणे खोस्याय कर्माणि करोति स्वप्नायते जरूपति च सा स्त्यानतिः । वेदनीयम् [ ३१. वेदनीयम्य द्वे प्रकृतयः ] सातावेदनीयमलातावेदनीयं घेति वेदनीयं विषा । [ ३२. मानावेनीयस्य स्वरूपम् । तत्रेन्द्रियमुखकारणचन्दनकर्पूरसृावनिताविविषयप्रानिकारणं साता वेव नीयम् । [ ३३. अनातावदनोग्रस्य स्वरूपम् | इन्द्रियदुःखकारणविषशस्त्रानिकारकादिवव्यामिनिमित्तमसातादेव नीयम् । ३७. स्त्यानगुद्धिका स्वरूप जिसके कारण उठा देने पर भी फिर-फिर सो जाये, नोंदमें उठकर कार्य करे, स्वप्न देखें, बड़बड़ाये, उसे स्त्यानगृद्धि कहते हैं । ६१. घेदनीयके वा भेद - मानावेदनीय और असानावेदनीय, ये दो वेदनीयके भेद हैं । ३२. मानावंदनीयका स्वरूप इन्द्रिय-सुखके कारण चन्दन, कपर, माला, वनिता आदि विषयोंकी प्राप्ति जिससे हो, वह साताबेदनीय है। ३३. असातावेदनीयका स्वरूप इन्द्रिय-दुःखके कारण विष, शस्त्र, अग्नि, कंटक आदि द्रव्योंकी प्राप्ति जिसके द्वारा हो, वह असातावेदनीय है। Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० [ ३४. मोहनीयरम हो भेदो ] दर्शन मोहनीयं चरित्रमोहनीयं चेति मोहनीयं द्विधा । कर्मप्रकृतिः मोहनीयम् [ ३६. मिथ्यात्वस्य स्वरूपम् ] [ ३५. दर्शनमोहनीयस्य त्रयः भेदाः ] ar मिथ्यात्वं सभ्य मिथ्यात्वं सम्यवश्वप्रकृतिश्चेति दर्शनमोहनीयं त्रिधा । तत्रातत्त्वश्रद्धान कारणं मिथ्यात्वम् । [ ३७. सम्यग्मिथ्यात्वस्य स्वरूपम् ] तत्त्वातत्त्वश्रद्धानकारणं सम्यमिध्यात्वम् । ८३४. मोहनीयके दो भेद [ ३४- दर्शन मोहनीय और चारित्रमोहनीय, ये दो मोहनीयके भेद हैं । ३५. दर्शनमोहनीयके तीन भेद उनमें मिथ्यात्व सम्यग्मिथ्यात्व तथा सम्यक्त्व प्रकृति, ये तीन दर्शन मोहनीयके भेद हैं । ३६. मिथ्यात्वका स्त्ररूप उक्त तीन भेदों में मिध्यात्व वह है, जिससे तत्त्वकी श्रद्धा न होकर विपरीत श्रद्धा हो । ३७. सम्यग्मिथ्यात्वा स्वरूप जिससे तत्त्व तथा अतत्त्व दोनोंका श्रद्धान हो वह सम्यग्मिथ्यात्व है । Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Ans: -11] [ ३८. सम्यक्त्वप्रकृतेः स्वरूपम् ] तत्त्वार्थप्रदानरूपं सम्यग्दर्शनं चलमलिनमगाढं करोति यत्सा सम्यक्त्वप्रकृतिः । [ ३९. चारित्रमोहनीयस्य द्वौ भेदी | कषायनोकषायभवाच्चारित्रमोहनीयं द्विधा। [४०. कपायाणां भेदाः ] तत्रानन्तानुबन्ध्यप्रत्याख्यानप्रत्याख्यानसंज्वलनविकल्पतः प्रत्येक क्रोधमानमायालोमा इति कषायाः षोडश । [४१. अनन्तानुवन्धिकषायागां कार्यम् ] तत्रानन्तानुबन्धिकोधमानमायालोभाः सम्यग्दर्शनं विराधयन्ति । ३८. सम्यक्त्वप्रकृतिका स्वरूप जो तत्त्वार्थकी श्रद्धारूप सम्यग्दर्शनमें चल, मलिन तथा अगाढ़ दोष उत्पन्न करे, वह सम्यक्त्वप्रकृति है । ३९. चारित्रमोहनीयक भेद कपाय और नोकषाय भेदसे चारित्रमोहनीय दो प्रकारका है। ४०. कषायके भेद उनमें अनन्तानुबन्धि, अप्रत्याख्यानावरण, प्रत्याख्यानावरण तथा संज्वलनके विकल्पसे कषाय चार प्रकारको है और प्रत्येकके क्रोध, मान, माया तथा लोभ ये चार-चार भेद हैं। इस प्रकार कषायके सोलह भेद हैं। ४१. अनन्तानुवन्धि कषायोंका कार्य अनन्तानबन्धि, क्रोध, मान, माया और लोभ सम्यग्दर्शनका घात करते हैं-उसे वे प्रकट नहीं होने देते। Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मप्रकृतिः [४२. अप्रत्याभ्यानकप्रायाणां कार्यम् ] अप्रत्याख्यानक्रोधमानमायालोमा वेशसंयमं प्रतिबध्नन्ति । [ ४३. प्रत्याख्यानकापायाणां कार्यम् ] प्रत्याख्यानक्रोधमानभायालोभास्सकलसंपमं प्रतिबध्नन्ति । [ ४४, संज्वलनकषाणां कार्यम् ] संज्वलनकोधमानमायालोभा यथाख्यातचारित्रं निवारयन्ति । [ ४५. अनन्तानुबन्धिकपायाणां शनायः ] त्रानन्द गुगन्धिः सोमसापालामा थाक्रमं शिलाभेदविलास्सम्भवेणुमूलक्रिमिरागकम्बलसदृशास्तीव्रतमशक्तयः । ४२. अप्रत्याख्यानावरण कषायोंका कार्य अप्रख्यानावरण क्रोध, मान, माया, और लोभ देशसंयमको रोकते हैं। ४३. प्रत्याख्यानावरण कपायोंका कार्य प्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया, लोभ सकलचारियको रोकते हैं। ४४, मंचलन कषायोंका कार्य संज्वलन क्रोध, मान, माया, लोभ यथास्पात चारित्रको नहीं होने देते हैं। ४५. अनन्तानुबन्धि कपायोंकी शक्ति अनन्तानुबन्धि क्रोध, मान, माया और लोभ कषाय क्रमसे शिलाखण्ड, शिलास्तम्भ, वेणुमुल (बाँस को जड़ ) और क्रिमिराण कम्बल की तरह तीव्रतम शतिवारी होती है । - - - --- -- Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मप्रकृतिः [४६. अप्रत्याख्यानकषायाणां शक्तयः ] अप्रत्याख्यानक्रोधमानमायालोभा यथाक्रमं भूभेदास्यि-अविशृग चक्रमलसदृशास्तीव्रतरशस्तयः । [४७. प्रत्याख्यानकषामाणां शनायः ] प्रत्याख्यानक्रोधमानमायालोमा यथाक्रम धूलिरेखाकाष्ठगोमूत्रतनुमल सदृशास्तीनशक्तयः । [ ४८. संज्वलनकषायाणां शक्तयः | संज्वलनक्रोधमानमायालोभा यथाक्रमं जलरेखावेत्रक्षुरप्रहरिद्राराग सदृशा मन्दशक्तयः । [४९. हास्यप्रकृतेर्लक्षणम् ] यतो हासो भवति तद्धास्यम् । ४६. अप्रत्याख्यानाबरण कापायोंकी शक्ति अप्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया और लोभ कषाय क्रमसे पृथ्वीखण्ड, हड्डी, मेके सींग तथा चक्रमल ( ओंगन ) के सदृश तीव्रतर शक्तिवाली होती हैं। ४७. प्रत्याख्यानावरण कपायोंकी शक्ति प्रत्याख्यान क्रोध, मान, माया और लोभ क्रमसे धूलि-रेखा, काष्ठ, गोमूत्र तथा शरीरको मलके समान तीव्रतर शक्तिबाली होती हैं। ४८. संचलन कपायोंवो शक्ति संज्वलाम क्रोध, मान, माया तथा लोभ क्रमसे जलरेखा, बेत, खुरपा तथा हल्दोके रंगके सदृश मन्द शक्तिबाली होतो हैं । ४९. हास्य प्रकृतिका लक्षण जिससे हँसी आथे, वह हास्य प्रकृति है। Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ [ ५०. रतिप्रकृतेर्लक्षणम् यतो रमयति सा रतिः । [ ५१. अतिप्रकृतम् । यतो विषण्णो भवति सारतिः । [ ५२. शोकप्रकृतेर्लक्षणम् ] यतः शोचयति रोदयति स शोकः । [ ५३. भयप्रकृतेर्लक्षणम् 1 यतो विभेत्यनर्यात्तदुभयम् । [ ५४. जुगुप्साप्रकृतेर्लक्षणम् । यतो जुगुप्सा सा जुगुप्सा । कर्मप्रकृतिः ५०. रतिका लक्षण जिसके कारण रमे ( प्रसन्न हो ), वह रति है । ५१. अरतिका लक्षण जिसके कारण विषण्ण हो, वह अरति है। 31 ५२. गोकका लक्षण जिसके कारण शोक करे, वह शोक है । ५३. भयका लक्षण जिसके कारण अनर्थसे डरे, वह भय है । ५४. जुगुप्साका लक्षण जिसके कारण घृणा आये, वह जुगुप्सा है । [40 Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मप्रकृतिः -५८ ] [ ५५. स्त्रीवेदस्य लक्षणम् ] यतः स्त्रियमात्मानं मन्यमानः पुरुषे वेदयति रन्तुमिच्छति सः स्त्रीवेदः । १५ [ ५६. पुत्रेदस्य लक्षणम् ] यतः पुमांसमात्मानं मन्यमानः स्त्रियां वेदप्रति रतुमिच्छति सः पुत्रेदः । [ ५७. नपुंसकवेदस्य लक्षणम् ] यतो नपुंसकमात्मानं मन्यमानः स्त्रीपुंसोदर्यात रन्तुमिच्छति स नपुंसक वेदः । आयुः [ ५८. आयुष्कर्मण: चत्वारः प्रकृतयः ] नाकापुण्यंतियंायुष्यं मनुष्यायुध्वं वेदाजु यातुविधम् । ५५. स्त्रीवेद्रका लक्षण जिसके कारण अपनेको स्त्रो मानता हुआ पुरुषमें रमण करनेकी इच्छा करता है, वह स्त्री वेद है । ९६. वेदका लक्षण जिसके कारण अपनेको पुरुष मानता हुआ स्त्री में रमण करनेकी इच्छा करता है, वह पुंवेद है । ५७. नपुंसक वेद का लक्षण जिसके कारण अपनेको नपुंसक मानता हुआ स्त्री और पुरुष दोनोंमें रमण करने की इच्छा करता है, वह नपुंसकवेद है । ५८. आयुकर्म के चार भेद नारकायुष्य, तिर्यगायुष्य, मनुष्यायुष्य और देवायुष्य इस प्रकार आयुकं चार भेद हैं। Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मप्रकृतिः [५९[५९. नरकायुषो लक्षणम् ] सत्र यमारकारोरे मात्मानं धारयति तनारकापुष्यम् । [६०. तिर्यगायुपो लक्षणम् | यत्तिर्यक्छरोरे जीवं धारयति तत्तिसग यष्यम् । [ ५१. मनुप्मायूषो लक्षणम् । यन्मनुष्यशरोरे प्राणिनं धारयति सन्मनुष्यापुष्यम् । [ ६२, देवायुषो लक्षणम् ] यद्देवशरीरे बेहिनं धारयति लद्देवायुष्यम् । नाम [६३. नामकर्मणः वाचत्वारिंशत्प्रकृतमः ] गतिजातिशरीरबन्धनसंघालसंस्थानाङ्गोपाङ्गसंहनामवर्णगम्बरसस्पर्शा नुपूर्यगुरुलधूपघातपरघातातपोद्योतोच्छ्वासविहायोगतित्रसस्थावर५९. नरकायुष्यका लक्षण जो आत्माको नारक शरीरमें धारण कराता है, वह नरकायुष्य है। ६०. तियंगायुप्यका लक्षण जो जोचको तिर्वच-शरीरमें धारण कराता है, वह तिर्यगायुष्य है। ६१. मनुष्यायुज्यका लक्षण जो प्राणीको मनुष्य-गरीरमें धारण कराता है, वह मनुष्यायुष्य है। ६२. देवायुप्यका लक्षण जो प्राणीको देव-गरीरमें धारण कराता है, वह देवायुष्य है। ६३. नामकर्मकी बयालीस प्रकृतियां गति, जाति, दारीर, बन्धन, रांधात, संस्थान, अंगोपांग, संहनन, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, आनुपूर्वि, अगुरुलघु, जपघात, परधात, Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -१६ ] कप्रषिः बादरसूक्ष्मपर्याप्तप्रत्येकशरीरसाधारणशरीर स्थिरास्थिरशुभाशुभसुभगदुभंग सुस्वरदुःस्वरादेयानादेययशस्कीर्त्य यशस्कोर्तिनिर्माणतीर्थंकर स्वानीतिपिण्डापिण्डरूपा नामकर्मप्रकृतयो द्वाचत्वारिंशत् । [ ६४. नामकर्मणः पिण्डप्रकृतीनां प्रयोनवतिः भेदाः ] पिण्डप्रकृतीनां भेदे तु सर्वा नामप्रकृतयस्त्रयोनवतिः । [ ६५ गतिनामकर्मणः चत्वारः भेदाः ] नारकतियंङ मनुष्यदेवगतिभेदाद गतिनाम चतुर्धा । ६६. नरकगतेक्षणम् ] यतो जीवस्य नारकपर्यायो भवति सा नरकगतिः । 1 आतप उद्योत उच्छ्वास, त्रस, स्थावर, बादर, पर्याप्त, अपर्याप्त, प्रत्येक शरीर, साधारण शरीर, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, सुभग, दुभंग, सुस्वर, दुःस्वर, आदेय, अनादेय, यशस्कीर्ति, अयशस्कीति निर्माण तथा तीर्थंकरत्व ये नामकर्मकी पिण्ड-अपिण्डरूप बयालीस प्रकृतियाँ हैं । 1 १७ ६४. नाम कर्मकी तिरानवे प्रकृतियाँ पिण्डप्रकृतियों के भेद करनेपर नामकर्मकी सब प्रकृतियां तिरानबे होती हैं । ६५. गति नाम कर्मके चार भेद नरकगति तिर्यग्गति, मनुष्यगति और देवगतिके भेदसे गति नाम 2 कर्मके चार भेद हैं । ६६. नरकगतिका लक्षण जिसके कारण जीवकी नारकपर्याय होती है, वह नरकगति है । २ Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * | ६७. नियंग्गतेर्लक्षणम् 1 यतस्तिर्यक्पयो भवति प्राणिनः सा तिर्यग्गतिः । [ ६८. मनुष्यगतेर्लक्षणम् | यतो मनुष्यपर्याय आत्मनो भवति सा मनुष्यगतिः । | ६९. देवगतेर्लक्षणम् ] कर्मप्रकृतिः यतो देवपर्यायो देहिनो भवति सा देवगतिः । [ ७०. गतेः सामान्यलक्षणम् 1 नारका विभवप्राप्ति मनहेतुर्वा गतिनामा । [ ७१. जातिनामकर्मणः पञ्च भेदा: ] एकद्वित्रिचतुः पचेन्द्रियभेदाज्जातिनाम पञ्चषा । ६७. तिर्यग्गतिका लक्षण जिसके कारण जीवकी निर्यन पर्याय होती है, वह तिर्यग्गति है | [६७ ६८ मनुष्यगतिका लक्षण जिसके कारण आत्माकी मनुष्यपर्याय होती है. वह मनुष्यगति है । ६१. देवगतिका लक्षण जिसके कारण प्राणीको देवपर्याय होती है, वह देवगति है । ७०. गति नाम कर्मका सामान्य लक्षण अथवा नारक आदि भवप्राप्तिके लिए गमनका कारण मति नाम कर्म है 1 ७१. जाति नाम कर्मके पांच भेद | एकेन्द्रिय द्वीन्द्रिय त्रीन्द्रिय चतुरिन्द्रिय तथा पंचेन्द्रियके भेदसे जानि नाम कर्मके पाँच भेद है । Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ = -७५] कमप्रकृतिः [ ७२. एकेन्द्रियजातिनामकर्मणाः लक्षणम् ] तत्र स्पर्शनेन्द्रियवन्तो जीवा भवन्ति यतः सा एकेन्द्रियजातिः । [ ७३ जना कर्म] यतः स्पर्शनरसनेन्द्रियवन्तो ओवा भवन्ति सा द्वीन्द्रियजातिः । १९ [ ७४. श्रीन्द्रियजातिनामकर्मणः रुाणम् ] यतः स्पर्शनरसनघ्राणेन्द्रियवन्तो जीवा भवन्ति सा श्रीन्द्रियजातिः । [ ७५. चतुरिन्द्रियजातिनामकर्मणः लक्षणम् ] यतः स्पर्शनरसनप्राणचक्षुष्मन्तो जोवा भवन्ति सा चतुरिन्द्रियजातिः । ७२. एकेन्द्रिय जाति नामकर्मका लक्षण जिसके कारण जीव केवल स्पर्शन इन्द्रियवान् होता है, वह एकेन्द्रिय जाति नाम कर्म है । १७३. द्रीन्द्रिय जाति नाम कर्मका लक्षण जिसके कारण जीव केवल स्पर्शन और रसना इन्द्रिय युक्त होता है, वह दीन्द्रिय जाति नाम कर्म है। ७४. श्रीन्द्रिय जाति नाम कर्मका लक्षण जिसके कारण जीव स्पर्शन, रसना तथा घ्राण इन्द्रिय युक्त होता है, वह त्रीन्द्रिय जाति नाम कर्म है । ७५. चतुरिन्द्रिय जाति नाम कर्मका लक्षण जिसके कारण जीव स्पर्शन, रसना, घ्राण और चक्षु युक्त होता है, वह चतुरिन्द्रिय जाति नाम कर्म है । Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फर्मप्रकृतिः [७६ ७६. पश्चेन्द्रियजातिनामकर्मीगः लक्षणम् 1 पतः स्पर्धानरसनधाणचक्षुःश्रोत्रेन्द्रियवन्तो जीवा भवन्ति सा पक्रन्द्रिय जातिः। [ ७७. शरीरनामकर्मणः पञ्च भेवाः ] औवारिक क्रिपकाहारकतैजसकामणानीति शरीरनाम पञ्चधा। [ ७८, औदारिकशरीरनामफर्मणः लक्षणम् ! तत्र यस आहारवर्गणायाताः पुद्गलस्कन्धा मौवारिकशरीरकरणे परि णमन्ति तोचारिकशरीरनाम। [ ७९. वैक्रियकशरीरनामकर्मण: लक्षणम् ] यत आहारवर्गणायाताः पुदगलस्कन्धा वैशियकारीररूपेण परिणमन्ति । तक्रियकशरीरनाम। ३६. गन्द्रियजानि नामकर्गका लक्षण जिसके कारण जोन स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु तथा श्रोत्रेन्द्रिय युक्त होना है, वह पंचेन्द्रिय जाति नाम कर्म है। ७.३. शरीर गाम कर्मक गान भेद औदारिक, वैक्रियक, आहारक, लजम और कार्मण, ये शरीर नाम कर्मके पाँच भेद हैं। ७८. औदारिक शरीर नाम कर्मका लक्षण जिसके कारण आहार वर्गणा-द्वारा आये हुए पुद्गल स्कन्ध औदारिक शरीरके रूपमें परिणत होते हैं, वह औदारिक शरीर नाम कर्म है। ७९. पैकियक शरीर नाम कर्मका लक्षण जिसके कारण आहार वर्गणा-वारा आये हुए पुद्गल स्कन्ध वैकिया शरीरके रूपमें परिणत होते हैं, वह वैक्रियक शरीर नाम कर्म है । Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -४३] कमप्रकृतिः [ ८०. आहारकशरीरनामकर्मण: लक्षणम् । मत आहारवर्गणायाताः पुद्गलस्कन्धा आहारकशरीररूपेण परिणमन्ति तवाहारकवारीरनाम। [८१. तेजसशरोरनामकर्मणः लक्षणम् । यतस्तैजसवर्गणायाताः पुद्गलस्कन्धास्तैजसशरीररूपेण परिणमन्ति तत्तैजसशरीरनाम। [ ८२. कार्मणशरीरनामकमाणः लक्षणम् । कार्मणवर्गणायाताः पुद्गलस्कन्धाः कार्मणशरीररूपेण परिणमन्ति यतस्तत्कार्मणशरीरनाम । [ ८३. बन्धननामकर्मणः पञ्च भेदाः । औदारिकाविशारीरपञ्चकाश्रितं अन्धननाम पञ्चधा । ८०. आहारत भारीर नाम कर्मका लक्षण जिसके कारण आहार वर्गणा-द्वारा आये हुए पुद्गल स्कन्ध आहारक शरीर रूपसे परिणत होते हैं, उसे आहारक शरीर नाम कर्म कहते हैं। ८१. तैजस शरीर नाम कर्मका लक्षण जिसके कारण तैजस वर्गणा-द्वारा आये हुए पुद्गल स्कन्ध तेजस शरीर रूपसे परिणत होते हैं, वह तैजस शरीर नाम कर्म है। ८२. कार्मण शरीर नाम कर्मका लक्षण जिसके कारण कार्मण धर्गणा-द्वारा आये हुए पुद्गल स्कन्ध कार्मण शरीर रूप परिणत होते हैं, वह कार्मण शरीर नाम कर्म है। ८३. बन्धन नाम कर्गके पाँच भेद औदारिक आदि पाँच शरीरों के आश्रित बन्धन नाम कम पांच प्रकारका है। Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कमप्रप्तिः [८४. औदारिकारीरबन्धननामकर्मणः लभणम् | तत्रौवारिफशरीराकारेण परिणतपुदगलानां परस्परसंश्लेषरूपो बन्यो यसो भवति तबौधारिकशरीरबन्धननाम । [ ८५. क्रिमकादिशरीरबन्धननामकर्मणां लक्षणानि । एवं वैकियकाहारकतेसकार्मणशरीराकारेण परिणतपुद्गलानां परस्परसंश्लेषरूपी बन्यो यती भवति तानि वक्रियकाहारफतैजसकार्मण शरीरबन्धननामानि मातव्यानि । । ८.६. मंघातनामकर्मणः पश्न भेदाः । औदारिकादिशरीरपत्रकाश्रितानि संघातनामानि पञ्च । ८४. औदारिक मार्गर बन्धन नाम मामका कम जिसके कारण औदारिक शगेरके आकाररूपसे परिणत पुद्गलोंका परस्पर मंश्लेप रूप बन्ध होता है, वह औदारिक शरीर बन्धन नाम कर्म है। ८५. ऐकियक, आहारक, तंजस और कामण गरीर बन्धन नाम कर्म इसी प्रकार जिस कारण वैकियक, आहारक, तेजस और कार्मण शरोरके आकार रूपसे परिणत पद्गलोंका परस्पर संश्लेष रूप वन्ध होता है, उन्हें कामशः वैक्रियक, आहारक, तेजम और कार्मण शरीर बन्धन नाम कर्म कहते हैं। ८६. संघात नाम कमक पांच भंद औदारिक आदि पौत्र शरोरोंके आश्रित संघात नाम कर्म पाँच प्रकारका होता है। Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मप्रकृतिः [ ८७. औदारिकशरीरसंघातनामकर्मणः लक्षणम् । तत्रौदारिफशरीराकारेण परिणतपरस्परबजपुद्गलानां तवाकारवैषम्याभावकारणमौवारिफशरीरसंघातनामकर्म । ::: चैकिंवदगिर रांगामायणा': लक्षणम् । एवं वैक्रियकाहारकतैजसकार्मणशरीररूपेण परिणतपरस्परबद्धपुद्गलस्कन्धानां तत्तवाकारवैषम्याभावकारणानि वैक्रियकाहारकतैजसकामंणशरीरसंघातनामानि ज्ञातव्यानि । । ८९. संस्थाननामकर्मणः पभेदाः । समचतुरस्रन्यग्रोधस्वातिकुब्जबामनहुण्डभेदात्संस्थाननाम घोढा । ८७. औधारिख शरीर मंपात नाम कर्मका लक्षण औदारिक शरीरके आकाररूपसे परिणत परस्पर बद्ध पुद्गलोंके तदाकार वैषम्यके अभावका कारण औदारिक शरीर संघात नाम कम है। ८८. बैंक्रियक, आहारक, तेजस और कामण शरीर, संघात नाम कमका लक्षण इसी प्रकार वैक्रियक, आहारक, तेजस और कार्मण शरीर रूपसे परिणत, परस्पर बन्छ पुद्गल स्कन्धोंके उस-उस आकारकी विषमताके अभावका कारण वैक्रियक, आहारक, तेजस और कार्मण शरीर संघात नाम कर्म है। ८१. संस्थान नाम कमक छह भेद समचतुरन, न्यग्रोध, स्वाति, कुब्ज, वामन और हुण्डक, ये संस्थान नाम कर्मके छह भेद हैं। Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૪ कर्मप्रकृतिः [ १० [ ९०. समचतुरस्रसंस्थानस्य लक्षणम् ] तत्र यतः सर्वत्र दशतालललतिप्रशखत तत्समचतुरस्त्रसंस्थानं नाम । [ ९१. न्यग्रोधसंस्थानस्य लक्षणम् ] यत उपरि विस्तीर्णोऽथः संकुचितशरीराकारो भवति तन्न्यग्रोधसंस्थानं नाम । [ ९२. स्वातिसंस्थानस्य लक्षणम् ] यतोऽधो विस्तीर्ण उपरि संकुचितशरोराकारो भवति तत्स्वातिसंस्थानं नाम | स्वातिर्वल्मीकं तत्सादृश्यात् । [ ९३. कुटजसंस्थानस्य लक्षणम् ] यतो ह्रस्वः शरीराकारो भवति तत्कुब्जसंस्थानं नाम । ९०. रामचतुरस्र संस्थान का लक्षण जिससे सब जगह दशत्ताल लक्षणयुक्त प्रदास्त संस्थान सहित शरीरका आकार होता है, वह समचतुरसू संस्थान है। ९१. न्यग्रोध संस्थानका लक्षण जिसके कारण ऊपर विस्तीर्ण तथा नीचे संकुचित शरीराकार होता है, वह न्यग्रोध संस्थान है । ९२. स्वाति संस्थानका लक्षण जिसके कारण नीचे विस्तीर्ण तथा ऊपर संकुचित शरीरका आकार होता है, वह वल्मीक ( वांमी) सदृश होनेके कारण स्वातिसंस्थान कहलाता है । ९३. कुब्जक संस्थानका लक्षण जिसके कारण शरीरका आकार छोटा ( कुबड़ा ) होता है, वह कुब्जक संस्थान नाम कर्म है । Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -५७ ] 1 ९४. वामनसंस्थानस्य लक्षणम् ] यतो दोघंहस्तपादा ह्रस्वकबन्धश्च शरीराकारो भवति तद्वामन संस्थानं नाम । कमप्रकृतिः २५ [ ९५. हुण्डकसंस्थानस्म लक्षणम् ] यतः पाषाण पूर्णगोणिवत् ग्रन्ध्यादिविषमशरीराकारो भवति तद् हुण्डसंस्थानं नाम । [ ९६. अङ्गोपाङ्गनामकर्मणस्त्रयां भेदाः ] औदारिकवैक्रियकाहारकशरीरभेदाधङ्गोपाङ्गनाम त्रिधा । [ ९७. औदाखिवाङ्गेोगाङ्गस्य लक्षणम् ] तत्रैौदारिकशरीरस्य चरणद्वयबाहुद्व पनितम्बपृष्टवक्षः शोषं भेदादष्टाङ्गानि अङ्गुलीकणनासिकापाङ्गानि करोति यत्तवौवारिकशरीराङ्गोपाङ्गनाम । ९४. वामन संस्थानका लक्षण जिसके कारण हाथ और पैर लम्बे तथा कबन्ध ( धड़ ) छोटा होता है, उसे वामन संस्थान कहते हैं । ९५. हुण्डक संस्थानका लक्षण जिसके कारण पत्थर भरी हुई गौनकी तरह, ग्रन्थि आदिसे युक्त विषम शरीराकार होता है, उसे हुण्डक संस्थान कहते हैं । ९६. अंगोपांग नाम कर्म के भेद औदारिक, वैक्रियक और आहारक, ये अंगोपांग नाम कर्मके तीन भेद हैं । Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ कर्मप्रकृति: [96 1 १८. वैक्रियकाहारकारी लक्षणे | एवं वैक्रियकाहारकशरीरयोरपि तबङ्गोपाङ्गकारकं वैक्रियकाहारकशरीराङ्गोपाङ्गनामद्वयं ज्ञातव्यम् । [ ९१. संहनन नामकर्मण: पड भेदाः | वज्ञवृषभनाराचसंहनन वज्रनाराचनारावार्धनाराचकीलितासंप्राप्तसृपाटिकाभेदतः संहननं नाम षोढा । | १०० वज्रवृधमनाराचसंहननस्य लक्षणम् | तत्र वज्रवत् स्थिरास्थिऋषभो वेष्टनं वज्रवत् वेष्टनकीलकबन्धो यतो भवति तद्वज्ञवृषभनाराचसंहननं नाम । ९३. औदारिक शरीर अंगोपांगका लक्षण ओदारिक शरीरके दो पैर दो हाथ, नितम्ब, पीठ, वक्षस्थल तथा शीर्ष ये आठ अंग और अंगुली, कर्ण, नासिका आदि उपांग जिसके कारण होते हैं, उसे औदारिक शरीर अंगोपांग कहते हैं । ९८. वैक्रियक तथा आहारक शरीर अंगोपांगका लक्षण इसी तरह जिनके कारण बेकियक तथा आहारक शरीर के अंगोपांग होते हैं, उन्हें क्रमश: वैकियक तथा आहारक शरीर अंगोपांग कहते हैं । ९९. संहनन नाम कर्म के भेद वज्रवृषभनाराच संहनन, वज्रनाराच संह्नन, नाराचसंहनन, अर्धनाराचसंहनन, कीलित संहनन तथा असंप्राप्तसृपाटिकासंहनन, ये संहनन नाम कर्मके छह भेद हैं । १००. बज्रवृषभनाराच संहननका लक्षण जिसके कारण वज्रकी तरह स्थिर अस्थि और वृषभ वेष्टन तथा वस्त्रकी तरह वेष्टन और कीलक बन्ध होता है, उसे वज्रवृषभनाराच संहनन कहते हैं । Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ --10४] कर्मप्रकृतिः [ १०१. वनाराचसंह्ननम्य लक्षणम् | यतो वनवत् स्थिरास्थिकोलकबन्धसामान्यवेष्टनं च भवति तवज्जना राचसंहननम् । [ १.२. नाराचसंह्ननस्य लक्षणम् ] यतो वनवत् स्थिरास्थिवन्धसामान्यक्रोलिकावेष्टनमेतद्वयं भवति तन्नाराचसंहनन नाम। [१०३. अर्धनाराचसंहननस्य लक्षणम् | यतस्सामान्धास्थिबन्धाधकीलिका भवति तवर्धनाराचसंहनन नाम । | १०४. कीलिससंहननम्य लक्षणम् | यतः कोलित इय सामान्यास्थिवन्धो भवति तत्कोलितसंहननं नाम । --. ... . १०१. वज्रनाराच मंहननका लक्षण जिसके कारण बचकी तरह स्थिर अस्थि तथा कोलक बन्ध होता है तथा वेष्टन सामान्य होता है। उसे बनमाराच संहनन कहते हैं । १०२. नाराच महननका लक्षण जिसके कारण वनको तरह स्थिर अस्थिवन्ध तथा सामान्य कोलक और वेष्टन होते हैं, उसे नाराच संहनन कहते हैं । १०३. अर्धनाराच संहननका लक्षण जिसके कारण सामान्य अस्थिबन्ध अर्ध कोलित होता है, उसे अर्ध नाराच संहनन कहते हैं। १०४. कोलित संहननका लक्षण जिसके कारण कोलितको तरह सामान्य अस्थिबन्ध होता है, वह कीलित संहनन है। Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૧ कर्मकृति १०५. असं प्राप्त पटिकासंहननस्य लक्षणम् | यतः परस्परासंबद्धास्थिबन्धो भवति तदसंप्राप्तसृपाटिका संहननं नाम । | १०६. वर्णनामकर्मणः पञ्च भेदाः । श्वेतपीतहरितारणकृष्ण भेदाद् वर्णनाम पञ्चधा । [ १०७. वर्णनामकर्मणः सामान्यलक्षणम् ] ततत्स्वस्वशरीराणां श्वेतादिवर्णान्यत्करोति तद्वर्णनाम | i104 | १०८. गन्धनामकर्मणः ही भेदी | सुगन्धदुर्गन्धभेदाद गन्धनाम द्वेधा । | १०९. गन्धनामकर्मणः लक्षणम् | स्वस्वशरीराणां स्वस्त्रगन्धं करोति यत्तद् गन्धनाम । १०५. असंप्रापाटिका संहननका लक्षण जिसके कारण अस्थिबन्ध परस्पर असम्बद्ध होता है, उसे असम्प्राप्तस्पाटिका संहनन कहते हैं । १०३. वर्ण नामके पांच भेद देत, पीत, हरित, अरुण तथा कृष्णके भेदसे वर्णं नाम पाँव प्रकारका है । १०७. वर्ण नाम कर्मका सामान्य लक्षण अपने-अपने शरीरका श्वेत आदि वर्णं जिसके कारण होता है, उसे वर्ण नाम कहते हैं । १०८. गन्ध नाम कर्मके दो भेद सुगन्ध और दुर्गन्ध के भेदसे गन्ध नाम दो प्रकारका है । १०९. गन्ध नाम कर्मका सामान्य लक्षण अपने-अपने शरीरकी गन्ध जिस कारण होती है, उसे गन्ध नाम कहते हैं। Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -११३] कर्मप्रकृतिः [ ११०. रसनामकर्मणः पञ्च भेदाः ] तिक्तकटुकषायाम्लमधुरभेदादसनाम पञ्चधा। [ १११. रसनामकर्मणः लक्षणम् ] तत्तत्त्वस्वशरीराणां यत्स्वस्वरसं करोति तद्रसनाम । [ ११२. लवणो नाम षष्ठो रसः न पृथक् ] लवणो नाम रसो लौकिकैः षष्ठोऽस्ति । स मधुररसभेव एवेति परमा गमे पृथक्त्वा नोगमः, ला लिना इतनमान स्वास्वाभावात् । [ ११३. स्पर्शनामकर्ममाः अष्टभेदाः ] मृदुकर्कशगुरुलघुशीतोष्णस्निग्धरूक्षभेवास्पर्शननामाष्टकम् । ११०. रस नामके पाँच भेद तिक्त, कटु, कषाय, आम्ल तथा मधुरके भेदसे रस नाम कर्मके पाँच भेद हैं। १११. रस नाम कमका सामान्य लक्षण अपने अपने शरीरका जो अपना-अपना रस करता है, उसे रस नाम कर्म कहते हैं। ११२. लवण नामक छठा ररा लवण नामक छठा रस लोकमें माना जाता है। यह मधुर रसका ही भेद है, इसलिए परमागममें अलगसे नहीं कहा, क्योंकि नमकके बिना तो अन्य सभी रस फीके हैं। ११३. स्पर्श नाम कर्मके आट भेद मृदु, कर्कश, गुरु, लघु, शीत, उष्ण, स्निग्ध तथा रूक्षके भेदसे स्पर्श नाम कर्म आठ प्रकारका है। Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मप्रकृतिः [१:४[ ११४. स्पर्शनामकर्मणः लक्षणम् ! तत्तत्वस्वशरीराणां स्वस्वस्पर्श करोति । [ ११५. आनुपूर्विनामकर्मणः नन्त्रागे भेदाः ] नारकतिर्यमनुष्यदेवगत्यानुपूविभेदादानुपूर्विनाम चतुर्धा । [ ११६. आनुपूर्विनामकर्मणः लक्षणम् | स्वस्वालिगमने विग्नहतो त्यक्तपूर्वशरीराकारं करोति। [ ११७. अगुरुलघुनामकर्मणाः लक्षणम् ] अगुरुलधुनाम स्वस्वशरीरं गुरुत्वलघुत्वजिसे करोति । इ. ११८, उपघातनामकर्मण: लक्षणम् ] उपघातनाम स्वबाघरकार मुसाशिरीरलं करोति । ११४. स्पर्श नाम कर्मका सामान्य लक्षण स्पर्श नाम कर्म उस-उम अपने-अपने शरीरका अपना-अपना स्पर्श उत्पन्न करता है। ११५. आनुपूर्वि नाम वर्मके भेद नरकगत्यानुवि, तिर्यग्गत्यानुपूवि, मनुष्यगत्यानुपूपिके तथा देव गत्यानुपूक्केि भेदसे आनुपूर्विके चार भेद हैं। ११६. आनुपूर्वि का लक्षण इसके कारण अपनी-अपनी गतिमें जाने के लिए विग्रहगतिमें पहले / छोड़े गये शरीरका आकार होता है । (११७. अगुमलघु नाम कर्मका लक्षण गुरुलघु नाम कार्म अपने-अपने शरीरको गुरुस्त्र और लघुत्वसे रहित करता है। ११८, उपपात शारीर नाम कर्मका लक्षण उपघात नाम कर्म अपनेको बाधा कारक तोंद आदि गरीरावयदोंको करता है। Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -१२२] कर्मप्रकृमिः [ ११९. परवातनामकर्मणः लक्षणम् ] परघातनाम परबाधाकारकं सर्पदंष्ट्रशृङ्गाविशरीरावयवं करोति । [ १२०, तपनामकर्मणः लक्षणम् | आतपनामोष्णप्रभा करोति तत् सूर्य बिम्बे बाबरपर्याप्त पृथ्योकायिके भलि। [ १२१. उद्योतनामकर्मणः लक्षणम् ] उद्योतनाम शीतलप्रभां करोति, तत् चन्द्रतारकादिबिम्बेषु तेजोवायुसाधारणजितचन्द्रतारकादिबिम्बजनितबादरपर्याप्ततिर्यग्जीवेषु भवति। [ १२२. उच्छ्वासनामकर्मण; लमणम् ] उच्छ्वासनाम उच्छ्वासनिःश्वासं करोति । ११९. परघात शरीरका लक्षण परघात नाम कर्म दूसरोंको वाधा देनेवाले मर्पदाढ़, सीम आदि शरीरावयव करता है। १२२. आतप नाम कर्मका लक्षण आतप नाम कर्म उष्ण प्रभा करता है । वह सूर्य बिम्बमें स्थित बादर पर्याप्त पृथ्वीकायिक जीवोंको होता है। १२१. उयोत नाम कर्मका लक्षण उद्योत नाम कर्म शीतल प्रभा करता है । वह चन्द्र, तारागण आदि के बिम्बमें तथा तेजकायिक वायकायिक गाधारणकायिक जीवोंके सिवाय चन्द्रत्तारक आदि विम्बमें होनेवालं वादग्पर्याप्त तिर्यच जीवोंमें होता है। १२२. उच्छ्वास नाम कर्गका लक्षण उच्छ्वास नाम कर्म उच्छ्वास और निःश्वासको करता है। Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मप्रकृतिः [१२३. विहायोगतिनामकर्मण: दो भेदौ ] विहायोगतिमाम प्रशस्ताप्रशस्तभेदाद द्विधा । [ १२४. प्रशस्तविहायोगतः लक्षणम् ] तत्र प्रशस्तविहायोगतिनाम मनोझं गमनं करोति । [ १२५. अप्रशस्तविहायोगतेः लक्षणम् ] अप्रशस्तविहायोगतिरप्रशस्तगमनं करोति । [ १२६. असनामकर्मणः लक्षणम् ] असनाम द्वीन्द्रियादीनां चलनोद्वैजनावियुक्तं असकायां करोति । [ १२३. स्थायरनामकर्मणः लक्षणम् ] पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतयः स्थावरताम पृथिध्यायकेन्द्रियाणां चलनोटुजनादिरहितस्थावरकामं करोति । १२३. बिहायोगति नाम कमके भेद विहायोगति नाम कर्म प्रशस्त और अप्रशस्तके भेदसे दो प्रकारका है। १२४. प्रशस्त बिहायोगतिका लक्षण प्रशस्त विहायोगति नाम कर्म मनोज्ञ गमन करता है। १२५. अप्रशस्त विहायोगतिका लक्षण अप्रशस्त विहायोगति अप्रशस्त-अमनोज्ञ गमन करता है । १२६. अस नाम कर्मका लक्षण अस नाम कर्म चलन, उद्वेजन आदि युक्त द्वीन्द्रिय आदि रूप त्रसकाय को करता है। १२७. स्थावर नाम कर्मका लक्षण पृथ्वी, जल, तेज, वायु और वनस्पति, स्थाबर नाम कर्म पृथ्वी आदि एकेन्द्रियोंके चलन, उद्वेजन आदि रहित स्थावरकायको करता है। Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -10२] कर्मप्रकृतिः [ १२८, बादरनामकर्मणः लक्षणम् ] बाबरनाम परैर्वाध्यमानं स्थूलशरीरं करोति । [१२१. सूक्ष्मनामकमण; लक्षणम् | सूक्ष्मनाम परैरबाध्यमानं सूक्ष्मारोरं करोति । । [१३०. पर्याप्सनामक्रमशः लक्षणम् | पर्यातनाम स्वस्वपर्याप्तीनां पूर्णतां करोति । [१३१. अपर्याप्तनामकर्मणः लक्षणम् । अपर्यामनाम स्वस्वपर्याप्तीनामपूर्णतां करोति । [ १३२. पर्याप्तीनां पड् भेदाः ] पप्रियश्चाहारशरीरेन्द्रियोच्छ्वासनिःश्वासभाषामनःसंबन्धेन घोडा भवन्ति । १२८, बादर नाम कर्मका लक्षण बादर नाम कर्म दूसरोंके द्वारा बाधा दिये जाने योग्य स्थूल शरीरको करता है। १२९. सूक्ष्म नाम कर्मका लक्षण सूक्ष्म नाम कर्म दूसरोंके द्वारा बाधा न दिये जाने योग्य सूक्ष्म शरीर करता है। १३०, पर्याप्त नाम कर्मका लक्षण पर्याप्त नाम कर्म स्व-स्व पर्याप्तियोंकी पूर्णता को करता है। १३१. अपर्याप्त नाम कर्मका लक्षण अपर्याप्त नाम कर्म अपनी-अपनी पर्याप्तियों की अपूर्णता करता है। Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ কর্মমভূমি। [१४[ १३३. आहारपशिलक्षणम् ] तन्नाहारवर्गणायासपुद्गलस्कन्धानां खलरसभागरूपेण परिणमने आत्मनः शक्तिनिष्पत्तिराहारपर्यामिः । [ १३४. दारीपर्याप्नलक्षणम् ] खलभागमस्माविकठिनावयवरूपेण, रसभागं रसरुधिराविद्रवावयव रूपेण च परिणमयितुं जीवस्य शक्तिनिष्पत्तिः शरीरपर्याप्तिः । [ १३५. इन्द्रियपर्यामलक्षणम् । स्पर्शनादीन्द्रियाणां योग्यदेशावस्थितस्वस्वविषयपहणे शक्तिनिष्पत्तिरिन्द्रियपर्याप्तिः । १३२. पर्याप्तियोंके छह भेद आहार, शरीर, इन्द्रिय, उच्छ्वास-निश्वास, भाषा और मन ये पर्याप्तिके छह भेद हैं। १३३. आहार पर्याप्तिका लक्षण आहार वर्गणा द्वारा प्राप्त पुद्गल स्कन्धोंका खल और रस भाग रूप परिणमनमें जीवको शक्ति उत्पन्न होना आहार पर्याप्ति है। १३४, शरोगपर्याप्तिका लक्षण खल भागको अस्थि आदि कठिन अवयब रूपसे तथा रस भागको रस, मधिर आदि द्रव अवयव रूपसे परिणत करनेमें जीवको शक्ति उत्पन्न होना शरीर पर्याप्ति है। १३५. इन्द्रिय पर्याप्तिका लक्षण स्पर्शन आदि इन्द्रियोंके योग्य देशमें अवस्थित अपना-अपना विषय ग्रहण करनेमें शक्ति उत्पन्न होना इन्द्रिय पर्याप्ति है। Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -110] कर्मप्रकृतिः [ १३६. उच्छ्वासनिश्वासपर्याप्त लक्षणम् ] आहारवर्गणायातपुद्गलस्कन्धानुन्छ्वासनिःश्वासरूपेण परिणमयितुं जोवस्य शक्तिनिष्पत्तिरुच्छ्वासनिःश्वासपर्याप्तिः । [ १३७. मागावला भाषागणायातपुदगलस्कन्धान्सत्यादिचतुविधवाक्स्वरूपेण परिणम यितुं जीवस्य शक्तिनिष्पत्तिर्भाषापर्याप्तिः । [ १३८. मनःपर्याप्त भणम् । वृष्टश्रुतानुस्मितार्थानां गुणदोषविचारणाविरूपभावमनःपरिणमने मनोवर्गणायातपुद्गलस्कन्धानां द्रव्यमनोरूपपरिणामेन परिणयितुं जीवस्य शक्तिनिष्पत्तिमनःपर्याप्तिः । १३६. उच्छ्वास-निश्वास पर्याप्तिका लक्षण आहार वर्गणा-द्वारा प्राप्त पुद्गल स्कन्धोंको उच्छ्वास-निश्वास रूपसे परिणत करनेके लिए जीवकी शक्ति उत्पन्न होना उच्छ्वास-निश्वास पर्याप्ति है। १३७. भाषा पर्याप्तिका लक्षण भाषा वर्गणा-द्वारा प्राप्त पुद्गल स्कन्धोंको सत्य आदि चार प्रकारकी वाक रूपसे परिणत करनेके लिए जीवकी शक्ति उत्पन्न होना भाषा पर्याप्ति है। १६८. मनःपर्याप्तिका लक्षण देखे, सुने, तथा अनुमित ( अनुमानसे जाने गये ) अर्थोके गुण-दोष विचारणादि रूप भाव मनके परिणमनमें, मनोवर्गणा रूपसे प्राप्त पुदगल स्क्रन्धोंके द्रव्य मन रूप परिणाम द्वारा परिणत करनेके लिए जोवकी शक्ति उत्पन्न होना मनःपर्याप्ति है। Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मप्रकृतिः [ १३९[ १३९. प्रत्येकगरीररय लक्षणम् | प्रत्येकशरीरनामैकस्य जीवस्येकशरीरस्वामित्वं करोति । [ १४०. साधारण शरीरस्य लक्षणम् ] साधारणशरीरनामानन्तजीवानामेकशरीरस्वामित्वं करोति । [ १४१. स्थिरनामकर्मणः इलक्षणम् ] स्थिरनाम रसरुधिरमासमेदोऽस्थिमज्जाशुक्राणां सप्तधातुनामचलि तत्वं करोति। [ १४२. अस्थिरनामकर्मणः लक्षणम् ] अस्थिरनाम लेषां चलितत्वं करोति । [ १४३. शुभनामकर्मणः लक्षणम् ] शुभनाम मस्तकादिप्रस्तावयचं करोति । १३९. प्रत्येक शरीरका लक्षण प्रत्येक शरीर नाम कर्म एक जीवको एक शरीरका स्वामी करता है। १४७. साधारण शरीरका लक्षण साधारण शरीर नामकर्म अनन्त जीवोंको एक शरीरका स्वामी करता है। १४१. स्थिर नाम कभका लमण स्थिर नाम कर्म रस, रुधिर, मांस, मेदा, अस्थि, मज्जा और शुक्र इन सात धातुओंकी स्थिरताको करता है। १४२. अस्थिर नाम कर्मका लक्षण अस्थिर नाम कर्म उपर्युक्त सप्त धातुओंकी अस्थिरता करता है। Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ --186] कमनहतिः [ १४४. अशुभनागकर्मणः लक्षणम् ] अशुभनामापानाद्यप्रशस्तावयवं करोति । [ १४५. सुभगनामकर्मणः लक्षणम् | सुभगनाम परेषां रुचिरत्वं करोति । [ १४६. दुर्भगनागकर्मणः लक्षणम् ] बुभंगनामारुचिरत्नं करोति । [ १४५. सुम्वरनामकर्मणः लक्षणम् । सुस्वरनाम श्रवणरमणीयस्वरं करोति । [ १४८. दुस्स्वरनामकर्मणाः लक्षणम् ] दुस्स्वरं नाम श्रवणबुस्सहं स्वरं करोति । १४३. गुभ नाम कर्मका लक्षण शुभ नाम कर्म मस्तक आदि प्रशस्त अवयव करता है। १४४. अशुभ नाम कमका लक्षण अशुभ नाम कर्म अपान आदि अप्रशस्त अवयवोंको करता है। १४५, सुभग नाम कर्मका लक्षण सुभग नाम कर्म दूसरोंकी रुचिरता करता है। . १४६. दुर्भग नाम कर्मका रक्षण दुर्भग नाम कर्म दूसरोंकी अरुचि करता है १४७. सुस्वर नाम कर्मका लक्षण सुस्वर नाम कम कर्णप्रिय स्वर करता है। १४८. घुःस्वर नाम कर्मका लक्षण दुःस्वर नाम कर्म कानोंको दुःसह स्वर करता है। Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 3 ३८ [ १४९. आदेयनामकर्मणः लक्षणम् ] आदेयनाम परेर्मान्यतां करोति । कर्म प्रकृतिः [ १५०. अनादेयनामकर्मणः लक्षणम् ] अनादेयनामामान्यतां करोति । [ १५१. यशस्कीदिनामकर्मणः लक्षणम् ] यशस्कीतिनाम गुणकीर्तनं करोति । [ १५२. अयशस्वीतिनामकर्मणः लक्षणम् } अयशस्को तिनाम दोषकीर्तनं करोति । [ १५३. निर्माणनामकर्मणः लक्षणम् ] निर्माणनाम शरीरवत् स्वस्वस्थानेषु स्वस्थितानुप्राञ्जलियां करोति १४९. आदेय नाम कर्मका लक्षण आदेय नाम कर्म दूसरोंके द्वारा मान्यता करता है । १५०. अनादेय नाम कर्मका लक्षण अनादेय नाम कर्म अमान्यता करता है । १५१. यशस्कीति नाम कर्मका लक्षण यशस्कीर्ति नाम कर्म गुणकीर्तन करता है । [ १४९ १५२. अयदास्कीति नाम कर्मका लक्षण अयशस्कीर्ति दोपकीर्तन ( बदनामों ) करता है । १५३. निर्माण नाम कर्मका लक्षण निर्माण नामकर्म शरीर के अनुसार स्व-स्व स्थानोंमें शरीरावयवोंका उचित निर्माण करता है । Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -१५७] कर्मप्रकृतिः [ १५४. तीर्थकरत्वनामकर्मणः लक्षणम् ] तीर्थकरत्वं नाम पञ्चकल्याणचतुस्त्रिशदतियायाष्टमहानातिहार्यसमवशरणादिबहुविधौचित्यविभूतिसंयुक्ताहन्त्यलक्ष्मी करोति । मोत्रम [ १५५. गोत्रकर्मणः द्वौ भेदौ] उच्चनीचभेदाद गोत्रकर्म द्विधा । [ १५६. उच्चगोत्रस्य लक्षणम् ] तत्र महायताचरणयोग्धोत्तमकुलकारणमुच्चेर्योत्रम् । [१५७. नीचगोत्रस्य लक्षणम् ] तद्विपरीताधरणयोग्यनीचकुलकारणं नोधैर्गोत्रम् । १५४, तीर्थकर नामकर्म तीर्थकर नाम कर्म पंच कल्याणक, चौतीस अतिशय, आठ प्रातिहार्य तथा समवशरण आदि अनेक प्रकारकी उचित विभूतिसे युक्त आर्हन्त्य लक्ष्मीको करता है। १५५. गोत्र कर्मके भेद उच्च और नीचके भेदसे गोत्र कर्म दो प्रकारका है। १५६. उच्च गोत्र कर्मका लक्षण महाव्रतोंके आचरण योग्य उत्तम कुलका कारण उच्च गोत्र कर्म कहलाता है। १५७. नीच गोत्र कर्मका लक्षण ऊपर बतायेके विपरीत आचरण योग्य नीच कुलका कारण नीच गोत्र है। Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कमप्रकृतिः [१५८० अन्तरायम् [१५८. अन्तरायकर्मणः पञ्च भेदाः ] दानलाभभोगोपभोगवीर्याश्रयभेवायसरायकर्म पञ्चधा। [ १५९. दानान्तरायस्य लक्षणम् ] तत्र दानस्य विघ्नहेतुर्दानान्तरायम् । [ १६०. लाभान्तरायस्य लक्षणम् ] लाभस्य विन्नहेतु भान्तरायम् । [ १६१. भोगान्तरायस्य लक्षणम् ] भुक्त्वा परिहातव्यो भोगस्तस्य विघ्नहेतु गान्तरापम् । १५८. अन्तराय कर्मके भेद दानान्तराय, लाभान्तराय, भोगान्तराय, उपभोगान्त राय तथा वीर्यान्तरायके भेदसे अन्तराय कर्म पांच प्रकारका है। १५९, दानान्तरायका लक्षण दानके विघ्नका कारण दानान्तराय होता है । १६०, लाभान्तरायका लक्षण लाभके विघ्नका कारण लाभान्त राय है । १६१. भोगान्तरायका लक्षण जो एक बार भोग कर छोड़ दिया जाता है उसे भोग कहते हैं । भोगोंके अन्तरायका कारण भोगान्तराय है। Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -१६५ ] कर्मप्रकृतिः [ १६२. उपभोगान्तरायस्य लक्षणम् ] भुक्त्वा पुनश्च भोक्तव्य उपभोगस्तस्य विघ्नहेतुरुप भोमान्तरायम् । [ १६३. वीर्यान्तरायस्य लक्षणम् । वीय शक्तिः सामर्थ्य तस्थ विघ्नहेतुर्वीर्यान्तरायम् । [ १६४, उत्तरप्रकृतिबन्धस्य समातिः ] एवमुत्तरप्रकृतियः कथितः। [ १६५. उत्तरोत्तर प्रकृतिबन्धस्यागोचरत्वम् ] उत्तरोतरप्रकृतिबन्धोऽगोचरो भवति । १६२. उपभोगान्तरायका लक्षण एक बार भोगकर पुनः भोगने योग्य उपभोग कहलाता है, उसके विध्नका कारण उपभोगान्तराय है। १६३. वीर्यान्तरायका लक्षण शक्ति या सामर्थ्य बीर्य है, उसके विघ्नका कारण बोर्यान्त राय है। १६४. उत्तर प्रकृति-वन्धका उपसंहार ___ इस प्रकार उत्तर प्रकृति-बन्ध कहा। १६५. उत्तरोत्तर प्रकृति-बन्ध उत्तरोत्तर प्रकृति-बन्ध अगोचर है । .MA. M YTENT Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १६६. स्थितिबन्धकथनम् ] अथ स्थितिबन्ध उच्यते । [ १६७. स्थितिबन्धस्य लक्षणम् ] ज्ञानावरणीयाविप्रकृतीनां ज्ञानप्रच्छावनादिस्वस्वभावापरित्यागेनाय स्थानं स्थितिः । [ १६८ स्थितिबन्धस्य समयः | तत्कालश्चोपचारात् । स्थितिबन्धः [ १६९. ज्ञानावरणीयदर्शनावरणीय वंदनीयान्तरायस्य चोत्कृष्टा स्थितिः ] तद्यया ज्ञानावरणीय दर्शनावरणीय वेदनीयान्त रायप्रकृतीनामुत्कृष्ट्रा स्थिति स्त्रिंशत्कोटिकोटिसागरोपमप्रमिता । १६६. स्थितिबन्धका कथन अब स्थिति बन्ध कहते हैं । १६७. स्थितिबन्धका लक्षण ज्ञानावरणीय आदि प्रकृतियोंका ज्ञानको ढेंकने आदि रूप अपने स्वभाव को न छोड़ते हुए स्थित रहना स्थिति है । १६८. स्थितिबन्धका काल उसके कालको उपचारसे स्थितिवन्ध कहा जाता है । १६९. ज्ञानावरणीय आदि कर्मोंकी उत्कृष्ट स्थिति ज्ञानावरणीय दर्शनावरणीय, वेदनीय तथा अन्तरायको उत्कृष्ट स्थिति तीस कोटि-कोटि सागर प्रमाण है । Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मप्रकृतिः -१७४ ] [ १७० दर्शनमोहनी यस्योत्कृष्श स्थितिः ] वनमनस्य सप्ततिः कोटिकोटिसागरोपमप्रमाणा । [ १७१. चारित्र मोहनीयस्योत्कृष्ट स्थितिः | चारित्रमोहनीयस्य चत्वारिंशत्कोटिकोटिसागरोपमप्रमिता । [ १७२. नामगोत्रयोरुत्कृष्टा स्थितिः ] नामगोत्रयोविंशतिकोटिकोटिसागरोपमप्रभात्री । [ १७३. आयुकर्मण: उत्कृष्ट स्थिति आयुष्यकर्मणस्त्रर्यास्त्रशत्सागरोपमप्रमाणा । इत्युत्कृष्ट स्थितिरुक्ता । [ १७४. वेदनीयस्य जधन्यस्थितिः । वेवनीयस्य जघन्यस्थितिर्द्वादशमुहूर्ता । ४३ १७०. दर्शन मोहनीको उत्कृष्ट स्थिति दर्शन मोहनीयको उत्कृष्ट स्थिति सत्तर कोटि-कोटि सागर प्रमाण है । १७१. चारित्र मोहनीयको उत्कृष्ट स्थिति चारित्र मोहनीयकी उत्कृष्ट स्थिति चालीस कोटि-कोटि सागर प्रमाण है । १७२. नाम और गोत्रकी उत्कृष्ट स्थिति नाम और गोत्रकी उत्कृष्ट स्थिति बीस कोटिकोटि सागर प्रमाण है । १७३. आयु कर्मकी उत्कृष्ट स्थिति आयु कर्मकी उत्कृष्ट स्थिति तेतीस सागर प्रमाण है । इस प्रकार उत्कृष्ट स्थिति कही । १७४. वेदनीय कर्मकी जघन्य स्थिति वेदनीय कर्मको जघन्य स्थिति बारह मुहूर्त है । Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ कर्मप्रतिः [१७५ [ १७५. नामगोत्रयोः जघन्यस्थितिः ] नाममोत्रयोरष्ठौ मुहूर्ता। [ १७६. शेषाणां जयस्थितिः । शेषाणां ज्ञानावरणीयदर्शनावरणीयमोहनोयायुष्यान्तरायाणां अधन्य स्थितिरन्तर्मुहूर्ता। [ १७७. सर्वेषां कर्मणां स्थितिः ] सर्वेषां कर्मणां स्थिति नाविकल्पा। [ १७८. स्थितिबन्धकथनस्य उपसंहारः ] इति स्थितिरुक्ता। १७५. माम और गोत्रको जघन्य स्थिति नाम और गोत्रको जघन्य स्थिति आठ मुहूर्त है। १७६. शेप क्रमोंकी जघन्य स्थिति शेष ज्ञानाबरणीय, दर्शनावरणीय, आयु तथा अन्तरायकी जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त है। १५७. सभी कर्मोंकी स्थिति सभी कर्मोंकी स्थिति नाना प्रकार की है। १७८. स्थितिबन्धका उपसंहार इस प्रकार स्थितिबन्ध कहा । Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुभागबन्धः [ १७९. अनुभागबन्धकथनस्य प्रतिज्ञा ] अथानुभाग उच्यते । [ १८०. अनुभागबन्धस्य लक्षणम् ] कर्मप्रकृतीना तोत्रमन्दमध्यमशक्ति विशेषोऽनुभागः । [ १८१. घातिकर्मणामनुभागः ] चातिकर्मणामनुभागी लवादास्यर्शलसमानचतुःस्थानः । [ १८२. अपातिकर्मणामनुभागः ] अधातिकर्मणामशुभप्रकृतीनामनुभागो निम्बकाखेर विषहालाहलसदृशचतुः स्थानः, शुभप्रकृतीनामनुभागो गुडखाण्डशर्करामृतसमानचतुःस्थानः । १७९. अनुभाग अन्ध कहने की प्रतिज्ञा अब अनुभाग बन्ध कहते हैं । १८०. अनुभाग वन्धका लक्षण कर्मप्रकृतियोंकी तीव्र, मन्द, मध्यम शक्ति विशेषसे अनुभाग कहा है । १८१. वाति कर्मोंका अनुभाग घाति कमोंका अनुभाग लता, दारु (काष्ठ), अस्थि तथा शिलाके समान चार प्रकार है । Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मप्रकृतिः ૐ [ १८३. अनुभागबन्यकथनस्योपसंहारः ] इत्यनुभाग उक्तः । [ १८३ १८२. अघाति कर्मोका अनुभाग अति कर्मोंकी अशुभ प्रकृतियोंका अनुभाग नीम, कांजीर, विष, और हालाहलके समान चार प्रकारका तथा शुभ प्रकृतियोंका अनुभाग गुड़, खाँड, शर्करा तथा अमृत के समान चार प्रकारका है । १८३. अनुभाग बन्ध कथनका उपसंहार इस प्रकार अनुभाग बन्त्र कहा । Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रदेशबन्धः [ १८४. प्रदेशबन्धकमनस्य प्रतिज्ञा ] अथ प्रवेश उच्यते। [ १८५, प्रदेशबन्धस्य लक्षणम् ] आत्मप्रदेशेषुववर्षगुणहानिगुणितसमयप्रबद्धमात्राणि सिद्धराश्यनन्तकभागप्रमितानामभन्यजीवस्थानन्तगुणानां सर्वकर्मपरमाणून पर स्परप्रदेशानुप्रवेशलभणः प्रदेशबन्धः। [ १८६, प्रदेशबन्धस्योपसंहारः ] इति प्रवेशबन्ध उक्तः। १८४. प्रदेश बन्ध कथनकी प्रतिज्ञा आगे प्रदेशबन्ध कहते हैं। १८५, प्रदेशबन्ध का लक्षण आत्माके प्रदेशों में डेढ़ गुणहानि गणित समयबद्ध मात्रको सत्ता रहती है तथा प्रति समय सिद्धराशिके अनन्तवें भाग प्रमाण या अभव्य जीवोंके अनन्तगुणें समस्त कर्म परमाणुओंका परस्पर प्रदेशों में अनुप्रवेश होना प्रदेशबन्ध है ! १८६. प्रदेशबन्ध वायनका उपसंहार इस प्रकार प्रदेशबन्ध कहा । Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८ कर्म प्रकृतिः [ १८७ [ १८७ द्रव्यकर्मणामुपहा ] एवं प्रकृतिस्थित्यनुभागप्रदेशविकल्पानि पौद्गलिकानि द्रव्यकर्माणि कथितानि । १८७. द्रव्यकमों के कथनका उपसंहार इस प्रकार प्रकृति, स्थिति, अनुभाग तथा प्रदेशके भेदसे पीद्गलिक द्रव्य कर्म कहे । Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावकर्म [ १८८. भावकर्मणः लक्षणम् ] उज्ञानावरणादिद्रव्यकर्मोदयजनिता आत्मनोऽज्ञानराममिध्यावर्श नाविपरिणामविशेषा भावकर्माणि । [ १८९. भावकर्मणां परिमाणम् ] तान्यप्यसंख्यातलोकमात्राणि भवन्ति । १८८. भाव कर्मका लक्षण उक्त ज्ञानावरणादि द्रव्य कमके उदयसे होनेवाले आत्माके अज्ञान, राग, मिथ्यादर्शन आदि परिणामविशेष भाव कर्म हैं । १८९. भाव कर्मों का परिमाण वे भाव कर्म असंख्यात लोक प्रमाण हैं | : Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : नोकर्म [ १९०. नोकर्मणः लक्षणम् ] औदारिकवैक्रियकाहारकर्तेज सशरीरपरिणमन पुद् गल स्कन्धा नोकर्म द्रव्याणि । [ १११. संसारिजीवस्य लक्षणम् ] एवंविधद्रव्यभाव नोकर्मसंयुक्ताः गतिषु परिवर्तमान जीवास्संसारिणः । पञ्चविध संसरण परिणताश्चतसृषु [ १९२. मुक्तजीवस्य लक्षणम् ] तत्कर्म श्रयमुक्तास्सिद्धगताववस्थिताः क्षायिकसम्यक्त्वज्ञानदर्शनवीर्यसूक्ष्मत्वावगाहनागुरुलघुत्वाव्याबाधरूपा गुणपरिणताः सिद्धपरिमेष्ठितो जोवा मुक्ताः । १९०, नोकर्मका लक्षण ओदारिक, वैक्रियक, आहारक तथा तेजस शरीर के रूपमें परिणत पुद्गल स्कन्ध नोकर्म द्रव्य हैं । १९१. संसारी जीवका लक्षण इस प्रकार द्रव्य कर्म, भाव कर्म तथा नोकर्मसे युक्त, पाँच प्रकारके परिवर्तनों में परिणत तथा चार गतियों में भ्रमण करते हुए जीव संसारी हैं । ११२. मुक्त जीवका लक्षण उक्त तीन प्रकारके कर्मोंस मुक्त, सिद्ध गति में स्थित, क्षायिक सम्यक्त्व क्षायिक ज्ञान, क्षायिक दर्शन, क्षायिक वीर्य, सूक्ष्मत्व, अवगाहनत्व, अगुरुलघुत्व तथा अव्याबाधस्वरूप अष्ट गुण परिणत सिद्ध परमेष्ठी मुक्त जीव है । Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -134] [१९३. संसारिजोवानां ही भेदो ] त: तत्र संसारिणो जीवा भव्याभव्यभेदेन द्विधा । [ १९४. भव्यजीवस्य लक्षणम् ] तत्र रत्नत्रयसा मायाः सकलकर्मक्षयं कृत्वानन्तज्ञाना विस्वरूपोपलब्धिभवनयोग्यशक्तिविशेषसहिता भव्याः । १९५. भव्यजीवानां चतुर्दशगुणस्थानानि ] तत्र चतुर्दशगुणस्थानवर्तिनो भय्याः । [ ९९६. अभव्यजीवस्य लक्षणम् ] एकस्मान्मिथ्यादृष्टिगुणस्यानादनिवर्तमाना अभव्याः । १९३. संसारी जीवोंके दो भेद संसारी जीव भव्य और अभव्य के भेदसे दो प्रकार के हैं । १९५. भव्य जीवोंके चौदह गुणस्थान ५१ १९४. भव्य जीवका लक्षण रत्नत्रय रूप सामग्रीके द्वारा समस्त कर्मक्षय करके अनन्त - ज्ञान आदि स्वरूप प्राप्ति होने योग्य शक्ति विशेषसे सहित जीव भव्य जीव कहलाते हैं । चौदह गुणस्थानों में स्थित भव्य होते हैं । १९६. अभव्य जीवका लक्षण केवल एक मिथ्यात्व गुणस्थान में ही रहनेवाले अभव्य जीव होते हैं । Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कमंप्रकृतिः [ 140 १९७. अभव्यानां करणत्रयाभावः ] तेषां कदाचिदपि सम्यग्वर्शनप्राप्तिकारणकरणत्रयविधानासंभवात् । [ १९८. मिथ्यात्वगुणस्थानम् ] तत्र दर्शनमोहनीयस्य मिथ्यात्यप्रकृतेरुदयावतस्य श्रद्धानरूपमिथ्यावर्शनपरिणतस्सर्वज्ञनपाणीतं हरिमानो धान्यप्रणोसमतस्वं श्रद्दधानो वा ओवो निष्यादृष्टिरिति प्रथमगुणस्थानवर्ती भवति । [ १९९ मिध्यादृष्टः सम्यक्त्वस्य विधानम् ] अनाविभिष्यावृष्टिर्षा प्रथमोपशमसम्यक्त्वं गृह्णाति । साविमिध्यादृष्टिर्वा लब्धिपञ्चभिधाने १९७. अभव्योंके करणत्रयका अभाव उनके कभी भी सम्यग्दर्शनको प्राप्तिके कारण करणत्रय होना असंभव है ! १९८. मिथ्यात्व गुणस्थान दर्शन मोहनीयकी मिथ्यात्व प्रकृतिके उदयसे अतत्वश्रद्धान रूप मिथ्यादर्शनसे युक्त, सर्वज्ञ वीतराग प्रणीत जीव आदि तत्वोंका अश्रद्वान करनेवाला अथवा संशय करनेवाला, या अन्य प्रणीत अतत्वों का श्रद्धान करनेवाला जोव मिध्यादृष्टि नामक प्रथम गुणस्थानवर्ती होता है । १९९. मिध्यादृष्टि सम्यक्त्वका विधान अनादि मिथ्यादृष्टि अथवा सादि मिथ्यादृष्टि पाँच लब्धियों के सद्भावमें प्रथमोपशम सम्यक्त्वको ग्रहण करता है । Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -२०२] [ २०७. पायोपशमलब्धिः ] तद्यथा कदाचित्कस्यचिज्जीवस्याशुभकर्मणामनुभागः प्रतिसमयमनन्तगुणहान्युवेति, इति तेषां सर्वघातिस्पर्धकानामनन्तगुणहानि विधाय तवन्यस्य सववस्था उपशमः, अनन्तहोनानुभागोदये सत्यपि क्षयो पशम इत्युच्यते । तस्य लम्धिः क्षयोपलब्धिः । [ २०१. त्रिशुद्धिलब्धिः ] क्षयोपशमलब्धौ सत्यामुत्पन्नस्सातादिप्रशस्तप्रकृतिबन्धकारणं जीवस्य यो विशुद्धिपरिणामस्तल्लाभो विशुद्धिलब्धिः। [ २०२. देशनालब्धिः ] पदयपञ्चास्तिकायसप्ततत्त्वनवपदार्थानामुपदेशकारकाचार्योपाध्याय वेशनालाभः, उपदेशकरहितक्षेत्र पूर्वोपविष्ट ओवादितत्त्वधारणस्मरणलाभो वा देशमालविधः। २००. क्षयोपशमलब्धि कभी किसी जीवके अशुभ कर्मोका अनुभाग प्रतिसमय अनन्त गुण हानि क्रमसे उदित्त होता है। इस प्रकार उन सर्वघाति स्पर्धकोंको अनन्त गुणहानि करके उस द्रव्यका सदवस्था रूप उपशम अनन्त होन अनुभागके उदय होनेपर भी क्षयोपशम कहलाता है। उसकी लब्धि क्षयोपशमलब्धि है। २०१. विशुद्धिलब्धि सातादि प्रशस्त प्रकृतियोंके बन्धका कारण जीवका जो विशुद्धि परिणाम क्षयोपशम लब्धिके होनेपर उत्पन्न होता है उसका लाभ विशुद्धिलब्धि है। Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४ कर्मप्रकृतिः [ २०३ [ २०३. प्रायोग्यतालब्धिः ] मायुर्थी जितसमकर्मणामुत्कृष्टस्थिति विशुद्धिपरिणामविशेषेण खण्डयित्वान्तः कोटिकोटिस्थिति स्थापयति, कतादाव स्थिपौल रूपघातिकर्मानुभागं खण्डयित्वा तावापद्विस्थानं स्थापयति, तद्विशुद्धि परिणाम योग्यतालाभः प्रायोग्यतालब्धिः । [ २०४. करणलब्धि | दर्शन मोहोपशमनादिकरणविशुद्धपरिणामः करण इत्युच्यते । तल्लाभः करणलब्धिः । २०२. देशनालब्धि P छह द्रव्य, पाँच अस्तिकाय, सात तथ्य तथा नव पदार्थोके उपदेश करनेवाले भाचार्य, उपाध्यायको देशनाका लाभ अथवा उपदेशक रहित क्षेत्रमें पूर्व उपदिष्ट जीव आदि तत्त्वोंके धारण, स्मरणका लाभ देशनालब्धि है | २०३. प्रायोग्यतालब्धि आयुको छोड़कर शेष सात कर्मोकी उत्कृष्ट स्थितिको विशुद्धि परिणामविशेष द्वारा खण्डित करके अन्तः कोटिकोटि प्रमाण स्थितिमें स्थापित करना । तथा लता, दारु (काष्ठ), अस्थि, शैलरूप घाति कमोंके अनुभागको खण्डित करके लता, दारूप दो स्थानों में स्थापित करना है। दस प्रकारकी विशुद्धिरूप परिणामोंकी योग्यताका लाभ प्रायोग्यतालब्धि है । २०४, करणलब्धि दर्शन मोहके उपशम आदि करनेवाला विशुद्धि परिणाम करण कहलाता है, उसका लाभ करणलब्धि है । Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५ F -२५१] कर्मप्रकृतिः [ २०५. करणस्य त्रयो भेदाः ] सच करणोऽवःप्रवृत्तकरणोऽपूर्वकरणोऽनिवृत्तिकरणश्चेति विधा। [ २०६. अधःप्रवृत्तकरणस्य काल: ] तत्राधःप्रवृत्तकरणकालोऽन्तर्मुहूर्तमात्रः ।।२७७७॥ [ २०७. अपूर्वकरणस्य काल: ] सतः संस्धेयगुणहीनोऽपूर्वकरणकालः ॥२७७॥ [ २०८. अनिवृत्तिकरणस्य काल: ] ततः संख्येषगुण होनोऽनिवृत्तिकरणकासः ॥२७॥ [ २०९. त्रयाणां करणानां काल: ] त्रितयं समुदितमप्यन्सर्मुहर्तकाल एवं । २०५. करण के तीन भेद वह करण अधःप्रवृत्तकरण, अपूर्वकरण तथा अनिवृत्तिकरणके भेदसे तीन प्रकारका है। २०६. अधःप्रवृत्तकरणका काल अधःप्रवृत्तकरणका काल अन्तर्मुहूर्त मात्र है । २०७. अपूर्वकरणका काल __उससे संख्यात गुणहोन अपूर्वकरणका काल है । २०८. अनिवृत्तिवरणका काल उससे संख्यात गुणहीन अनिवृत्तिकरणका काल है। २०९. तीनों करणोंका सम्मिलित काल सीनों करणोंका सम्मिलित काल भी अन्तर्मुहर्त हो है। ME - E Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मप्रकृतिः [२... [ २१०. करणत्रयेषु विशुद्धिः ] अधःप्रवृत्तकरणप्रथमसमयावारभ्य विशुद्धिः प्रतिसमयमनन्तगुण अप्यनिवृत्तिकरणचरमसमयं वर्तन्ते । [ २११. अधःप्रवृत्तकरणकाले विशुद्धिपरिणामः ] तत्राधःप्रवृत्तकरणकाले संख्यातलोकमात्रविशुद्धिपरिणामविकल्पा जघन्यमध्यमोत्कृष्टाः सन्ति। [ २१२. मधःप्रवृत्तकरणस्माङ्कसंदृष्टिः ] तपाइकसंवृष्ट्यायःप्रवृत्तकरणलक्षणमुच्यते--प्रथमसमयतानाजीवानां विशुद्धिपरिणामविकल्पानां जघन्यखण्डमिदम् ३९ । अस्मादद्वितीयं खण्ड विशेषाधिकम् ४० । तृतीयं विशेषाधिक ४१ । एवं परमचतुर्थखण्डं विशेषाधिक ४२ । हितोयसमये जघन्यखपडं प्रथमसमयजघन्य खण्डाविशेषाधिकम् ४७। ततो द्वितीयखण्डं विशेषाधिक ४१ । -- -.-.२१०. करणत्रयमें विशुद्धि अधःप्रवृत्तकरणके प्रथम समयसे आरम्भ करके विशुद्धि प्रति समय अनन्तगुणी होकर भो अनिवृत्तिकरणके चरम समय तक रहती है। २११. अधःप्रवृत्तकरण कालमें विशुद्धि परिणाम अधःप्रवृत्तकरणके समयमें असंख्यात लोकमात्र विशुद्धि परिणाम विकल्प जघन्य, मध्यम तथा उत्कृष्ट होते हैं। २१२. अनःप्रवृत्तकरणकी अंक संदृष्टि अंकसंदृष्टिको अपेक्षा अधःप्रवृत्तकरणका लक्षण कहते हैं-प्रथम समयमें नाना जीवोंके विशुद्धि परिणाम विकल्पोंका जघन्य खण्ड ३९ है। इससे द्वितीय खण्ड विशेष अधिक है ४० । इससे तीसरा विशेष अधिक है ४१ । इसी प्रकार अन्तिम चौथा खण्ड भी विशेष अधिक Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५. -२१२] कमेप्रकृतिः ततस्तृतीयखण्डं विशेषाधिक ४२ । एवं चरमखण्डं विशेषाधिक ४३ । एवं तृतीयादिसमयेषु जघन्याविखण्डानि विशेषाधिकानि भवन्ति । ये केषांचिज्जीवानामुपरिमसमयपरिणमनवर्तिनां विशुद्धिपरिणामविकल्पा अपास्तनसमयतिनां केषांचिज्जीवानां विशुद्धिपरिणामविकल्पैस्सह सदृशास्सन्तीस्थधःप्रवृत्तकरणसंज्ञा युक्ता । तत्र प्रथमसमयजघन्यखण्डं चरमसमयसरमखण्डं च केनापि जघन्योत्कृष्टेन सदृशं न भवति, तथापि तवृद्धर्य मिरालरेषां सर्वेषां खानामपर्यधवच सादृश्यमस्तीति, तेनाधःप्रवृत्तकरणसंज्ञा न विरुध्यते । अस्मिन्नधःप्रवृत्तकरणे प्रशस्तप्रकृतीनामनुभागः प्रतिसमयेऽनन्तगुणं वर्धते, अप्रशस्तप्रकृतीनामनुभागः प्रतिसमयमनन्तगुणहीनो भवति, संख्यालसहस्रस्थितिबन्धापसरणानि भवन्ति, प्रतिसमयमनन्तगणवृद्धधा विशुद्धिश्च वर्तते, इत्येतानि चत्वार्यावश्यकानि सन्ति । है ४२ । द्वितीय समयमें जघन्य खण्ड प्रथम समयके जघन्य खण्डसे विशेष अधिक है ४० । उससे द्वितीय खण्ड विशेष अधिक है ४१ । उससे तृतीय खण्ड विशेष अधिक है ४२। इसी प्रकार अन्तिम चौथा खण्ड विशेष है ४३ 1 इस प्रकार तृतीय आदि समयोंमें तथा अन्तिम समयमें जघन्य आदि खण्ड विशेष अधिक होते हैं। जो किन्हीं जीवोंके ऊपरके समय में परिणमन करनेवाले विशुद्धि परिणाम विकल्प निम्न समयवर्ती किन्हीं जीवोंके बिशुद्धि परिणाम विकल्पोंके साथ समान होते हैं। इसलिए इसकी अधःप्रवृत्तकरण संज्ञा उचित है। यद्यपि प्रथम समयका जघन्य खण्ड तथा अन्तिम समयका अन्तिम खण्ड किसी भी जघन्य या उत्कृष्ट खण्डके सदृश नहीं होता, फिर भी उन दोनोंको छोड़कर अन्य सभी खण्डोंका ऊपर तथा नोचे सादृश्य है, इसलिए अधःप्रवृत्तकरण कहने में विरोध नहीं आता। इस अधःप्रवृत्तकरणमें-प्रशस्त प्रकृतियोंका अनुभाग प्रति समय अनन्तगुणा बढ़ता है तथा अप्रशस्त प्रकृतियोंका अनुभाग प्रति Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५ कर्मप्रकृतिः [ २१३पुनर्गणश्रेणिनिर्जरागुणसंक्रमस्थितिकाण्डकघातानुभागकाण्डकघाता. श्वेति चत्वाविश्यकानि न सन्ति, तत्कारणविशुद्धिवियोषाभावात् । [ २१३. अपूर्वकरणम् ] ततः परमपूर्वकरणप्रथमसमये गुणधेणिनिर्जरागणसंक्रमस्थितिकाण्डकघाताश्च प्रारम्यन्ते । अत्रापि अघन्यमव्यमोत्कृष्टा विशुद्धिपरिणामाधःप्रवृत्तपरिणामेन्यो संख्यातलोकगुणिताः सन्ति । तत्र प्रथमसमययतिनानाजीवविशुद्धिपरिणामा असंख्यातलोकमाता अकसंदृष्ट्या ४५६॥ एते सर्वेऽप्येकेनैव खण्डं बहुखण्डानीय सन्ति । उपरितनसमयपरिणामस्सादृश्याभावात् । द्वितीयसमयपरिणामा विशेषाषिकाः ४७२। एसेम्यक्षमेव । उपयंघोऽधस्वसादृश्याभावादबहुखण्डाभावः। - .---. समय अनन्तगुणा हीन होता है । संख्यात सहस स्थितिबन्धापसरण होते हैं तथा प्रति समय अनन्तगुणी वृद्धिके हिसाबसे विशुद्धि होती है। ये चार आवश्यक होते हैं । किन्तु गुणधेणी निर्जरा, गुणसंक्रम, स्थितिकाण्डकघात तथा अनुभागकाण्डकघात, ये चार आवश्यक नहीं होते हैं, क्योंकि इनके कारण विशुद्धि-विशेषरूप परिणामोंका अभाव है। २१३. अपूर्वकरण इसके बाद अपूर्वकरणके प्रथम समयमें गुणवेणि निर्जरा, गुणसंक्रम, स्थिति काण्डकघात तथा अनुभाग काण्डकघात प्रारम्भ होते हैं। यहां भी जघन्य, मध्यम, उत्कृष्ट विशुद्धि परिणाम अधःप्रवृत्तकरणके परिणामोंसे असंख्यात लोक गुणे होते हैं। यहाँ प्रथम समयवर्ती नाना जीवों के विशुद्धि परिणाम असंख्यात लोकप्रमाण होते हैं। उनकी अंक संदष्टि ४५६ है। ये सभी एक ही खण्डसे बहुत खण्डोंकी तरह होते हैं क्योंकि ऊपरके समयवर्ती परिणामोंके साथ सादृश्यका अभाव है। Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ " -211] एवं तृतीयादिसमयेष्वाचरमसमयं विशुद्धिपरिणामा एकैकखण्डं कृताः विशेषाधिकाः सन्ति । अत एव कारणात्पूर्वपूर्व समयोऽप्रवृत्ता एव विशुद्धिपरिणामा उत्तरसमये भवन्तीत्यपूर्वकरण संज्ञा युक्ता । तस्याङ्कसंदृष्टि: - | S कर्मप्रकृतिः K ० V の ព W ० ܡ 7 → mt द्वितीय समयवर्ती परिणाम विशेष अधिक होते हैं ४७२। ये भी एक ही खण्ड हैं। ऊपर और नीचे अधस्त्वके सादृश्यका अभाव होने से बहुत खण्ड नहीं होते । इसी प्रकार तृतीय आदि समयों में चरम समय पर्यन्त विशुद्धि परिणाम एक-एक खण्ड करके ही विशेष अधिक होते हैं। इसी कारण से पूर्व पूर्व समय में नहीं हुए अप्रवृत्त ही विशुद्धि परिणाम उत्तर समयमें होते हैं, इसलिए अपूर्वकरण कहना उचित है। इसकी अंक संदृष्टि ऊपर दी है। Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कमंप्रकृतिः [ २१४ [ २१४. अधिक्तिकरणम् ] ततः परमनिवृत्तिकरणप्रथमसमये नानाजीवानां विशुद्धिपरिणामोऽपूर्वकरणे चरमसमय सर्वोत्कृष्टविशुद्धिपरिणामादनन्तगुण विशुद्धिर्जघन्यमध्यमोत्कृष्ट विकल्पाभावादेकादृश एव । द्वितीयसमयेऽपि प्रथमसमयविशुद्धेरनन्तगुणविशुद्धिर्नानाजीवानामेकादृश एव विशुद्धिपरिणामो भवति । एवं तृतीयादिसमयेष्व निवृत्तिकरण चरमसमयं समयमनन्तगुणवृद्वघा विशुद्धया वर्धमानोऽपि नानाजीवानां विशुद्धिपरिणामो जघन्यमध्यमोत्कृष्ट विकल्परहित एकादश एव भवति । अत एव कारणानिवृत्तिभेदो जधन्यमध्यमोत्कृष्ट विकल्पपरिणामस्य नास्तीत्यनिवृत्तिकरणसंज्ञा युक्ता । प्रति [ २१५ अनिवृतिकरणस्य विशेषः ] तस्यानिवृत्तिकरणस्य परमसमये भव्यश्चातुर्गतिको मिध्यावृष्टिः संक्षी पंचेन्द्रियपर्याप्तो गर्भजो विशुद्धिवर्धमानः शुभलेश्यो जाग्रदव २१४. अनिवृत्तिकरण इसके बाद अनिवृत्तिकरण के प्रथम समय में नाना जोवोंके विशुद्धि परिणाम अपूर्वकरण में चरम समय सर्वोत्कृष्ट विशुद्धि परिणामों से अनन्तगुणे विशुद्ध जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट विकल्पोंके न होने के कारण एक सदृश ही होते हैं । द्वितीय समय में भी प्रथम समयकी त्रिशुद्धिसे अनन्तगुणी विशुद्धियुक्त नाना जीवों के विशुद्धि परिणाम एक सदृश ही होते हैं। इसी प्रकार तृतीय आदि समयों में अनिवृत्तिकरण के चरम समय गर्यन्त प्रति समय अनन्तगुणी वृद्धि युक्त विशुद्धिसे बढ़ने वाले भी नाना जीवोंके विशुद्धि परिणाम जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट विकल्प रहित एक सदृश ही होते हैं । इसी कारण से जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट परिणामों में निवृत्तिभेद नहीं है, इसलिए अनिवृत्तिकरण कहना उचित है । Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१७ ! कर्मप्रकृतिः स्थितो ज्ञानोपयोगवान् अनन्तानुबन्धिकोषमानमायालोभान्मिथ्यात्वसम्पमिथ्यात्वसम्यक्त्वप्रकृतिश्चोपशमय्य प्रथमोपशमसम्यक्त्वं गलाति । तस्य कालो जघन्योत्कृष्ट नान्तर्मुहूर्तः। [ २१६. सासादननाम द्वितीयमुणस्थानम् ] तपासमयादारभ्य षडालिसमयपर्यन्ते कालेऽवशिष्टं सति अनन्तानुबन्धिक्रोधमानमायालोभानां मध्येऽन्यतमस्य कषायस्योदये सति जीवः सम्यक्त्वं विराध्य यावन्मिथ्यात्वं प्राप्नोति तावस्सासावनसम्यवृष्टिद्वितीयगुगस्थानवर्ती भवति । [ २१७. साराादनगुणस्थानस्य काल: ] तस्य कालो जघन्य एकसमय उत्कृष्टः षडावलिमात्रस्ततः परं नियमेन मिथ्यात्वप्रकृतेरुवयान्मिथ्यादृष्टिर्भवति । २१५. अनिवृत्तकरणका विशेष उस अनिवृत्तिकरणके चरम समय में भव्य चारों गतियों में से किसी भी गतिमें वर्तमान, मिथ्यादृष्टि, संजी पंचेन्द्रिय, पर्याप्तक, गर्भज, जिसकी विशुद्धि बढ़ रही है, शुभ लेश्या वाला, जागृत, ज्ञानोपयोगवान्, अगन्तानुबन्धि क्रोध, मान, माया, लोभ, मिथ्यात्व, सम्बग्मिथ्यात्व तथा सम्यकप्रकृतिका उपशम करके प्रथमोपशम सम्यक्त्वको ग्रहण करता है। उसका जघन्य तथा उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। २१६. सासादम नामक हितोय गुणस्थान उसमें से एक समयसे लेकर षडावलि समय पर्यन्त काल शेष रहनेपर अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया तथा लोभमें से किसी एक कषायके उदय होनेपर जीव सम्यक्त्वको विराधना करके जब तक मिथ्यात्वको प्राप्त होता है, तब तक सासादन सम्यग्दृष्टि नामक द्वितीय गुणस्थानवर्ती होता है ! Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मप्रकृतिः { २१८[ २१८. सम्यग्मिथ्यादृष्टिनाम तृतीयगुणस्थानम् | सम्यमिथ्यात्वप्रकृतेरहंदुपदिष्टसन्मार्गे मिथ्यात्वादिकल्पितदुर्मार्गेच श्रद्धावान् जीवः सम्पग्मिध्यादृष्टिरिति तृतीयगुणस्थानवर्ती भवति । [ २१९. नुतीयगुणस्थानस्य स्थितिः ] सद्गुणस्थाने उत्तरगत्यायुबंन्धो मरणं मारणान्तिकसमुद्घातगुणवतमहावतग्रहणं च नास्ति । यदा म्रियते तदा सम्यक् मिथ्यावं वा प्रतिपद्य म्रियते सम्पमिथ्यात्वे न म्रियते। सम्यमिथ्यास्वपरिणामापूर्वस्मिन्सम्यक्त्वे वा मिथ्यात्वे वा परभवायुबन्धे तवेवासंयतसम्यग्दृष्टिगुणस्थानं वा मिथ्यावृष्टिगुणस्थानं वा प्राप्य नियत इत्यर्थः। २१७. साराादन गुणस्थानका समय उसका जघन्य काल एक समय तथा उत्कृष्ट षडावलि मात्र है ! उसके बाद नियमसे मिथ्यात्व' प्रकृतिका उदय होनेके कारण मिथ्यादृष्टि हो जाता है। २१८. सम्यग्मिच्यादृष्टि नामक तृतीय गुणस्थान सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृतिके उदयसे अर्हन्त द्वारा उपदिष्ट सन्मार्ग में तथा मिथ्यात्व आदि कल्पित दुर्मार्ग में श्रद्धान करनेवाला जीव सम्यग्मिथ्यादृष्टि नामक तृतीय गुणस्थानवर्ती होता है। २१२. तृतीय गुणस्थानको स्थिति इस गुणस्थानमें आगेको गतिके लिए आयु बन्ध, मरण, मारणान्तिक समुद्घात तथा अणुव्रत या महाव्रतका ग्रहण नहीं होता। जब मरता है तो सम्यक्त्व अथवा मिथ्यात्वको प्राप्त करके मरता है। सम्यग्मिथ्यात्वमें नहीं मरता । अर्थात् सम्यग्मिथ्यात्व परिणामसे पहले सम्यक्त्व अथवा मिथ्यात्वमें परभवकी आयुका बन्ध होनेपर उसी असंयत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान अथवा मिथ्यादृष्टि गुणस्थानको प्राप्त करके मरता है। Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -२१२] कमप्रकृतिः { २२०. असंयतसम्यग्दृष्टिनाम चतुर्थगुणस्थानम् ] औपमिकसम्यक्त्वे वा क्षायिकसम्यक्त्वे वा वेवकसम्यक्त्वे वा वर्तमानो जीवोऽप्रत्याख्यानावरणक्रोधमानमायालोभकषायोक्याब्वायशविधेऽसंयमे प्रवृत्तोऽसंयतसम्यग्दृष्टिरिति चतुर्थगुणस्थानवर्ती भवति । | [ २२१. देशसंयमो नाम पञ्चमगुणस्थानम् | द्वितीयकषायोदयाभावे जीयोऽणुगुणशिक्षावतरूप एकादशनिलयविशिष्टे देशसंयमे वर्तमानः श्रावक इति पञ्चममुणस्थानवतॊ भवति । [२२२. प्रमत्तसंयतनाम षष्टगुणस्थानम् ] प्रत्याख्यानावरणकयायोदयाभावे महाव्रतरूपं सकलसंयम प्रतिपद्य संज्वलननोकषायमध्यमानुभागोदयात्पश्चदशसु प्रमावेषु वसंमानो जीवः प्रमत्तसंयत इति षष्टगुणस्थानवी भवति । २२०, असंमत सम्यग्दृष्टि नामक चौथा गुणस्थान ओपशमिक सम्यक्त्व, क्षायिकसम्यक्त्व अथवा वेदकसम्यक्त्वमें वर्तमान जीव अप्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया तथा लोभ कषायके उदयके कारण बारह प्रकारके असंयममें प्रवृत्त रहनेसे असंयत सम्यगदृष्टि नामक चतुर्थ गुणस्थानवर्ती होता है । २२१. देशसंयम नामक पाँचदा गुणस्थान द्वितीय अर्थात् अप्रत्याख्यानावरण कषायोंके अभावमें जीव अणुव्रत, तथा शिक्षाव्रत रूप ग्यारह स्थान विशिष्ट देशसंयममें वर्तमान धायक पंचम गुणस्थानवर्ती होता है। मन्ना Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मप्रकृतिः [ २२३. अप्रमत्तसंयतनाम सप्तमगुणस्थानम् ] संज्वलनक्रोधमानमायालो भकषायमन्वानुभा गोवयात्सकल हिंसादिनिषुतिरुपसंयमे प्रमादरहिते वर्तमानो जीवोऽप्रमत्तसंयत इति सप्तमगुणस्थानवर्ती भवति । ४ [ २९५ [ २२४. सातिशयाप्रमत्तस्म लक्षणम् ] स एव यदा क्षपकोपशमकश्रेण्यारोहणं प्रत्यभिमुखो भवति तवा करणत्रय मध्येऽषः प्रवृत्तकरणं करोतीति स एवं सातिशयाप्रमत इत्युच्यते । २२२. प्रमत्तसंयत नामक छठा गुणस्थान प्रत्याख्यानावरण कषायोंके उदयके अभावमें महाव्रत रूप सकल संयमको प्राप्त करके संज्वलन नोकषायके मध्यम अनुभागके उदय के कारण पन्द्रह प्रमादोंमें वर्तमान जोव प्रमत्त संयत नामक छठे गुणस्थानवर्ती होता है । २२३. अप्रमत्तसंयत नामक सातवाँ गुणस्थान संज्वलन क्रोध, मान, माया तथा लोभ कषायके मन्द अनुभागके उदयसे सकल हिंसा आदि निवृत्तिरूप प्रमाद रहित संयममें वर्तमान जीव अप्रमत्तसंयत नामक सप्तम गुणस्थानवर्ती होता है। २२४. सातिशय अप्रमत्त संयतका लक्षण वही जब क्षपक या उपशम श्रेणि चढ़नेके अभिमुख होता है, तब तीन करणों में से अधःप्रवृत्तकरण करता है, इसलिए वही सातिशय अप्रमत्त कहलाता है । Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -१२६] कर्मप्रकृतिः [ २२५. अपूर्वकरणो नामाष्टमगुणस्थानम् ] पुन; क्षपकौणिमुपशमकणि वा समारुह्य प्रतिसमपमनन्तगणविशुद्धया वर्षमानो गुणधेणिनिराधारश्यकानि कुर्वन्नुत्तरोत्तरसमयेषु पूर्वपुर्वसमयाप्राप्तानपूर्वानेव विशुद्धिपरिणामान् प्रतिपद्यमानो जीव: क्षपक उपशमको वापूर्वकरणसंयत इत्यष्टमगुणस्थानवर्ती भवति । [ २२६, अनिवृत्ति करणनाम नत्रमगुणस्थानम् ] पुनरेकविंशतिचारित्रमोहनीयप्रकृतीः क्षपयन्नुपशमयंश्च प्रतिसमयं जघन्यमध्यमोत्कृष्टविकल्परहिततानाजीवानामक सदशदिशापारणासस्थानं प्रतिपद्यमानश्चानिवृत्तिकरणसंयत इति नवमगणस्थानवर्ती भवति । २२५. अपूर्वबारण नामक आश्वाँ गुणस्थान फिर क्षपकणि अथवा उपमम श्रेणिका आरोहण करके प्रतिसमय अनन्तगुणी विशुद्धि-द्वारा बढ़ता हुआ गुणश्रेणि निर्जरा आदि आवश्यकोको करता हुआ उनरोत्तर समय में पूर्व-पूर्व समयमें अप्रास अपूर्व ही विशुद्धि परिणामोको प्राप्त करके क्षपक अथवा उपरामक जीव अपुर्वकरण संयत नामक अधम गुणस्थानवर्ती होता है। २२६. अनिवृत्तिकरण नामक नत्रम गुगस्थान इसके बाद चारित्र मोहनीयको इक्कीस प्रकृत्तियों का क्षय या उपशम करता हुआ प्रति समय जघन्य, मध्यम, उत्कृष्ट विकल्प रहित नाना जीवोंके एक सदृश विशुद्धि परिणाम स्थानको प्राप्त कर अनितिकरण संयत नामक नवम गुणस्थानवी होता है। Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १२७ ६६ कर्म प्रकृतिः [ २२७. सूक्ष्मसांपरायनाम दशमगुणस्थानम् ] चारित्रमोहनीयपुनः सूक्ष्मत्व (कृ) ष्टिगतलोभानुभागोक्यमनुभवन् प्रकृतीः क्षयोपशमयन्प्रतिसमय मनन्तगुणविशुद्धया वर्तमानः प्रशस्त ध्यानपरिणतः सूक्ष्मसाम्परायेति वशमगुणस्थानवर्ती भवति । [ २२८ उपशान्तकषायनाम एकादशगुणस्थानम् | एकविंशतिचारित्रमोहनीयप्रकृतीः समः निरवशेषमुपशमय्य यथाख्यातचारित्ररूपविशद्विविशेष परिणतः कतकफलप्रयोगादधः कृताउपान्तिप्रसम्मतोयसदृशविशुद्धिपरिणामः शुद्ध (शु) प्याननिष्ठ कषाय- वीतरागध्वमस्य इत्येकादवा गुणस्थानवर्ती भवति । [ २२९. क्षीणकषायनाम दृहदशगुणस्थानम् ] समस्त मोहनीयप्रकृतीनिरवशेषं निर्मूस्य स्फटिक भाजनगतप्रसन्नतोयसमविशुद्धान्तरङ्गो द्वितीयशुक्लध्यानबलेन ज्ञानावरणीयदर्शनावरणीयान्तरायरूपघातित्रयं क्षपयन् परमार्थनिर्ग्रन्थः क्षीणकषायवीतरागछद्मस्थ इति द्वादशगुणस्थानवर्ती भवति । २२७. सूक्ष्म सांपराय नामक दशम गुणस्यान फिर सूक्ष्म कृष्टिगत लोभके अनुभागके उदयका अनुभव करता हुआ चारित्र मोहनीयको प्रकृतियांका क्षय या उपशम करता हुआ, प्रति समय अनन्तगुणी विशुद्धिमं वर्तमान प्रशस्त ध्यान परिणत, सूक्ष्मसांपराय नामक दशम गुणस्थानवर्ती होता है। २२८. उपशान्त कषाथ नामक ग्यारहवाँ गुणस्थान चारित्र मोहनीयको इक्कीस प्रकृतियोंका पूर्णरूपसे उपशमन करके यथाख्यात चारित्ररूप विशुद्धि विशेष परिणत कतक फल ( निर्मली ) के प्रयोग से नीचे बैठ गया है मैल जिसका ऐसे निर्मल जलके समान विशुद्ध परिणाम वाला शुक्ल ध्याननिष्ठ उपशान्त कषाय वीत - राग छद्मस्थ नामक ग्यारहवें गुणस्थानवर्ती होता है । Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -२२०] [ २३०. सयोगकेलिनाभ त्रयोदशगुणस्थानम् ] शुक्लव्यानाग्निनिर्दग्धघातिकर्मचतुष्टयेन्धनः प्रादुर्भूतात्रिन्त्यकेवालज्ञानदर्शनविशिष्टलोचनदयावलोकितकालत्रयतिसमस्तवस्तुसंभृतलोकालोकानन्तसुखसुधारससंतृप्तोऽनन्तानन्तवीर्यामितबलः सकलात्मप्रदेशेषु निचितविशुद्धचैतन्यस्वभाषस्तीर्थकरपुण्यविशेषोदयं संप्रामाष्टमहाप्रातिहार्यचस्त्रिशतिशयसमवसरणविभूतिसंभावितकैवल्य - कल्याणो दिवाकरकोटिबिम्बविडम्बितप्रभाभासुरप्रक्षोणतमः परमोदारिकदिव्यदेह इतरकेवलो वा स्वयोग्यगन्धकुट्यादिविभूतिर्जगत्प्रयमउग्रजनप्रसोधपारायणपरमदिव्यध्वनिशतेन्द्रवन्वितस्सघोगकेवलीति त्रयोदशगुणस्थानवर्ती भवति । २२९. क्षीणकषाय नामक बारहवाँ गुणस्थान मोहनीय कर्मको समस्त प्रवृत्तियोंको संपूर्ण रूपसे नष्ट करके स्फटिक पात्रमें रखे स्वच्छ जलके समान विशुद्ध अन्तरंगवाला द्वितीय शुक्लध्यानके बलसे ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय तथा अन्तराय रूप तीन घातिया कोका क्षय वारता हुआ परम निर्ग्रन्थ क्षीणकपाय बीतराग छद्मस्थ नामक बारहवें गुणस्थानवर्ती होता है। १ ३०, सयोगकेवली नामक तैरहवाँ गुणस्थान शुक्लव्यानरूप अग्निके द्वारा चार घातिया कर्मरूप इन्धनके जल जानेसे प्रकट हुए अचिन्त्य केवलज्ञान तथा केवलदर्शनरूप विशिष्ट नेत्र-द्वयके द्वारा कालत्रयवर्ती समस्त वस्तु समूहसे भरे हुए लोकालोकको देखनेवाले, अनन्त सुखरूप सुधारससे संतृप्त, अनन्त वीर्यरूप अमित बलयुक्ता, समस्त आत्म प्रदेशों में व्याप्त विशुद्ध चैतन्य स्वभाव, तोर्थकर पुण्य विशेषके उदयसे प्राप्त हुए अष्ट महाप्रातिहार्य, चौंतीस अतिशय, समवशरण विभूतिके द्वारा मनाया गया है कैवल्य कल्याणक जिनका, करोड़ों सुर्योके प्रतिविम्बको तिरस्कृत करनेवाली Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८ कर्मप्रकृतिः : [ २३१. अयोगकेवलिनाम चतुर्दशगुणस्थानम् ] [२५१ पुनः स एव यचन्तमुहूर्तावशेषायु स्थितिस्ततोऽधिक शेषाघातिक मंत्रयस्थितिस्तदाष्टभिः समये दण्डकवाट प्रतरलोकपूरणप्रसर्पणसंहारस्य समुद्धातं कृत्वान्तर्मुहूर्तावशेषितायुः स्थिति समानशेषाघातिकर्मस्थितिसन् सूक्ष्मक्रियाप्रतिपातिना मतृतीयशुषलध्यानबलेन कायवाङ्मनो. निरोधं कृत्वायोगकेवली भवति । यदि पूर्वमेव समस्थिति कृत्वा घातिचतुस्तदा समुद्घात क्रियया विना तृत्तीयशुक्लध्यानेन योगनिरोधं कृत्वायोगकेवली भवति । प्रभासे देदीप्यमान परम औदारिक दिव्य देह से युक्त तीर्थंकर अथवा स्वयोग्य गन्धकुटी आदि विभूतिसे युक्त सामान्य केवली परम दिव्य ध्वनि द्वारा तीनों लोकोंके भव्य जनोंको प्रबोध देनेमें तत्पर सौ इन्द्रोंके द्वारा वन्दनीय सयोगकेवली तेरहवें गुणस्थानवर्ती हैं। २३१. अयोगकेवली नामक चौदहवाँ गुणस्थान फिर वही ( सयोगकेवली ) यदि अन्तर्मुहूर्त आयु स्थिति शेष रहने पर उससे अधिक शेष तीन अघातिया कर्मोकी स्थिति शेष रहती तो आठ समयों द्वारा दण्ड, कवाट, प्रतर, लोक पूरण, प्रसर्पण पुनः प्रतर क़पाट और दण्डरूप संहारके द्वारा समुद्घात करके, अन्तर्मुहूर्त अवशिष्ट आयु स्थिति के समान शेष घाति कर्मोकी स्थिति होनेपर सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाती नामक तृतीय शुक्लध्यान के बलसे मन, वचन, कायका निरोध करके अयोगकेवली होता है। यदि पहले हो घाति कर्मोकी स्थिति आयु कर्मको स्थितिके बराबर होती है, तब समुद्घात क्रियाके बिना तृतीय शुक्लध्यानके द्वारा योग निरोध करके अयोगकेवली होता है। Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मप्रकृतिः ६९ -२३२ ] [ २३२. मुकावस्थायाः स्वरूपम् ] पुनः स एवायोगकेवली सकलशीलगुणसंपन्नो व्युपरत क्रिया निवृत्तिनामचतुर्थ शुक्लध्यानेन पञ्चलध्वक्षरांवर मात्र स्वगुणमाताद्विचरमसमये देहाविद्वासप्ततिप्रकृतीः क्षपयित्वा पुनश्चरमसमये - एकतरवेदनीयादित्रयोदशकर्मप्रकृतीः क्षपयित्वा तदनन्तरसमये निष्कर्माशरीरस्सम्यक्त्वाद्यष्टगुणपुष्ट परमशरीरात्किचिदून पुरुषाकारविशुद्धि ज्ञानदर्शनमयो जीवो घनस्वरूप ऊयंगमनस्वभावादेकस्मिन्नेव समये लोकाग्रं गत्वा सिद्धपरमेष्ठी सन्सर्वकालमनन्त सुखतः केवलज्ञानदर्शनद्वय निर्मललोचनद्वयेन त्रिकालगोचरानन्तद्रव्यगुणपर्यायान् लोकालोको च जानन् पश्यन्नवतिष्ठते । लोकादुहिः सति सहकारिधर्मास्तिकायाभावान्न गच्छति । अत एव लोकालोकविभागश्च । Su - २३२. मुक्तावस्थाका स्वरूप फिर वही अयोगकेवली समस्त शील गुण संपन्न व्युपरत क्रिया निवृत्ति नामक चतुर्थ शुक्लध्यानके द्वारा पाँच लघु अक्षरोंके उच्चारण करने योग्य, अपने गुणस्थान कालके द्विचरम समयमें देह आदि बहत्तर प्रकृतियोंका क्षय करके फिर चरम समय में एकतर वेदनीय आदि तेरह कर्म प्रकृतियोंका क्षय करके उसके अनन्तर समयमें, निष्कर्म, अशरीर, सम्यक्त्व आदि अष्ट गुण युक्त, अन्तिम शरीरसे कुछ न्यून पुरुषाकार, विशुद्ध ज्ञान-दर्शनमय, धनस्वरूप जीव ऊर्ध्वगमन स्वभाव के कारण एक हो समयमें लोकके अग्र भागमें जाकर सिद्ध परमेष्ठी होकर, अनन्तकाल तक अनन्त सुखसे तृप्त केवलज्ञान तथा केनलदर्शनरूप निर्मल लोचन द्वयके द्वारा त्रिकाल गोचर अनन्त द्रव्य गुण पर्यायोंको तथा लोक अलोकको जानतादेखता अवस्थित रहता है। वह लोकके आगे, सहकारी धर्मास्तिकायके न होने के कारण, नहीं जाता। और इसीलिए लोक तथा अलोकका विभाग है । Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐ० कर्मप्रकृतिः इति सकलकर्म प्रकृति रहितसिद्धात्मस्वरूपं प्राप्तुकामा भव्या अनवरतं परमागमाभ्यासजनितनिर्मलसम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रतपोभावनानिष्ठा भवन्तु । जगन्ति शिलारोगमानसाः । अनन्तानन्तघी दृष्टिसुखवीर्या जिनेश्वराः ॥ कृतिरियमभयचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्तिनः । इति कर्मप्रकृतिः । इस प्रकार समस्त कर्मप्रकृतियोंसे रहित सिद्धोंके आत्म स्वरूपको प्राप्त करनेके इच्छुक भव्य जोब निरन्तर परमागम के अभ्यास द्वारा उत्पन्न निर्मल सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यग्चारित्र और तपकी भावनासे विशिष्ट हों । जिन्होंने समस्त पाप-मलके समूहको वो डाला है तथा अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त सुख और अनन्त वीर्यको प्राप्त कर लिया है, वे जिनेन्द्रदेव जयवन्त हों | यह कृति अभयचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती की है। कर्मप्रकृति समाप्त | Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अगुगलबु नानकर्म ११७ अधातिकर्म १८२ दृष्टि २१२ अक्षुदर्शनावरणीय २३ अणुव्रत २२१ अतिशय २३० अर्धनाराच संहनन १०३ अधःप्रवृत्तकरण २०६ अन्तराय १३ अन्तराय के भेद १५८ अन्तर्मुहूर्त २३१ अनन्तानुबन्धिकषाय ४१ अनादेय नामकर्म १५० अनियुनिकरण २०८, २१४, २२६ अनुभाग २१२ अनुभाग काण्डघात २१२ अनुभागबन्च १७९ अप्रत्याख्यान कषाय ४२ अप्रमत्तसंयत २२३ अप्रशस्तप्रकृति २१२ अपर्याप्त नामकर्म १३१ अपूर्वकरण २०७, २२५ अमय्यजीव १६६ अयशस्कीतिनामकर्म २५२ संख्या संकेत क्रमाका है । शब्दानुक्रम जय १६२ अरति ५१ अलोक २३२ अवधिज्ञान १८ अवधिज्ञानावरणीय १८ अवधिदर्शनावरणीय २४ शुभनामक १४५ अस्थिर नामकर्म १४२ . असातावेदनीय ३३ संपादिका संहनन १०५ असंयत सम्यग्दृष्टि १२० आतप नामकर्म १२० आय नामकर्म १४९ आनुपूर्वी नामकर्म ११६ आयु १० आयुकर्मके भेद ५८ आहारपर्याप्ति १३३ आहारकशरीरसंगोपांग ९८ आहारकशरीरसंघात ८८ आहारकशरीर नामकर्म ८० बहारकशरीरबन्धन ८५ इतर केवल २३०० इन्द्रियसि १३५ उच्च गोत्र १५६ " 1201 Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रमप्रकृतिः उच्छ्यास नामकर्म १२२ उच्छ्वास-निश्वासपर्याप्ति १३६ उत्तरप्रकृति ४ उत्तरोत्तरकृति ४ उशीतजाम ।११ उत्कृष्टस्थिति १६९, १७०,१७१,१७२ उपघात नामकर्म ११८ उपभोगान्तराय १६२ उपशमक २२५ उपशम श्रेणी २२४,२२५ उपशान्तकषाय २२८ एक समय २१६ एफेन्द्रिय ५२ मोवारिकशरीरांगोपांग ९७ औदारिकशरीरबन्धन औवारिकपारीरनामकर्म ७८ औदारिकशरीरसंघात ८७ औपचामिकसम्यक्त्व २२० अंगोपांग नामकर्म ९६ कर्म १ कर्मके भेद कर्म प्रकृति २३२ करणलब्धि २०४ कल्याण २३० कषाय ४० कार्मणशरीर २ कार्मणशरीरवग्णन ८५ कार्मणशरीरसंघात ८८ कीलितसंहनन १०४ कुम्ज संस्थान ९३ कोवलज्ञान २० कैमरणोय २० सपक २२५ सपकश्रेणी २२४,२२५ क्षयोपशमलब्धि २०० क्षायिक सम्यक्त्व २२० क्षोणकषायगुणस्थान २२९ गति ७० गतिनामकर्मके भेद ६५ गधनामकर्म १०१ गर्भज २१५ गुणन २२१ गुणश्रेणी निर्जरा २१२,२१३,२२५ गोषकर्म १५५ पातिकर्म १८१ चक्षुवर्शनावरणीय २२ चतुरिन्द्रियजाति ७५ वारित्र २३२ चारित्रमोहनीय ३४ चारित्र मोहनीयके भेद ३९ छद्मस्थ २२८ अघन्य स्थिति १७४.१७५,१७६ जाति नामकर्म ७१ जुगुप्सा ५४ मानावरणीय ६.१५ Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मप्रकृतिः शानोपयोग २१५ अस १२६ श्रीन्द्रिय जाति ७४ सप २३२ तिर्थग आशु ६० तिमति ६५ तीर्थकरनाभकर्म १५४ तैजसबारी र नामकर्म ८१ तैजसशरीरबन्धन ८५ तेजराशरीरसंघात ८८ द्वीन्द्रिय जाति ७३ दर्शनमोहनीय ३४,३५ दर्शनावरणोय ७,२१ धानान्तराय १५९ दुर्भगनामकर्म १४६ दुस्स्वरनामकर्म १४८ देव आसु ६२ देव गति ६९ देशनालधि २०२ देशसंयम २२१ न्यग्रोध संस्थान ९१ नपुंसकवेद ५७ नरकगति ६६ भरकायु ५९ नामकर्म ११ नामकर्मके भेद ६३,६४ नाराच संहनन १०२ निद्रा २६ निद्रानिद्रा २७ नोचगोत्र १५७ निमणिनामकर्म १५३ नोकर्म १९. पर्यात गामकर्म १३० परपासनामकम ११९ प्रचला २८ प्रवलाप्रवला २९ प्रत्याहपानकवाम ४३ प्रत्येक शरीर १३९ प्रथमोपशम सम्यक्त्व १९९,२१५ प्रदेशबन्ध १८४.१८५,१५६ प्रमत्त संयत २२२ प्रमाद २२२ प्रशस्तप्रवृति २१२ प्रशस्तविहायोगति १२४ प्रायोग्यतालब्धि २०३ पंचेन्द्रिय जाति ७६ पुंबद ५६ बन्धननामकर्म ८३ बादरनामकर्म १२८ भय ५३ भश्य जीव १९४ भावकम १८८,१८९ भावना २३२ भाषापर्याप्ति १३७ भोगान्तराय १६१ मतिज्ञान १६ RRY Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ०४ मतिज्ञानावरणीय १६ मन:पर्ययज्ञान १९ मन:पर्ययज्ञानावरणीय १९ मनःपर्यास १३८ मनुष्य आयु ६१ मनुष्यगति ६८ महाप्रातिहार्य २३० महाव्रत २२२ मिथ्यात्व २६ मिथ्यात्व गुणस्थान १९८ मुक्तजीब १९२ मूलप्रकृति ४, ५ मोहनीय ९ मोहनीय भेद ३४ यथारूपातचारित्र २२८ यशस्कोसि नामकर्म १५१ रति ५० रस नामकर्म ११० लाभान्वराय १६० लोक २३२ परतक्रियानिवृत्ति २३२ वचनाराच संहनन १०१ वृषभनाराचसंहनन १०० वर्णनामकर्म १३७ वर्णनामकर्म के भेद १०६ वामन संस्थान ९४ विहायोगतिनामकर्म १२३ विशुद्धि लब्धि २०१ कम प्रकृतिः वीतराग २२८ बोयन्तिराय १६३ वेदक सम्यक्त्व २२० चंदनीय वेदनीयके भेद ३१ वैक्रिकशरीरतमकर्म ७९ क्रियकारो बन्धन ८५ किशोरांगोपांग ९८ क्रियकशरीरसंघात ८८ श्रुतज्ञा १७ श्रुतज्ञानावरणीय १७ शरीरनामकर्म ७७ शरीरपर्यामि १३४ शिक्षाव्रत २२१ शुक्लध्यान २२९,२३० शुभ नामकर्म १४३ शोक ५२ पावलि २१६,२१७ स्त्रोवेद ५५ सत्यानगृद्धि ३० स्थावर १२७ स्थितिबन्ध १६७ स्थितिकाण्डकघात २१२ स्थिरनामकर्म १४१ स्पर्शनामकर्म ११४ स्फटिक भाजन २२९ स्वातिसंस्थान ९२ संक्रम २१२ Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मप्रकृतिः सज्ञी पंचेन्द्रिय 215 संघात नामकम 86 संज्ज्वलन पाय 44 संस्थान नामकर्म 89 संसारीजीव 191,113 संहनन नामकर्म 99 सकलसंयम 223 सफल हिंसाविनिवृत्ति 223 सम्पनिमण्याल 37 सम्यग्मिथ्यादृष्टि 218 सम्यप्रकृति 38 समचतुरस्रसंस्थान 90 समवशरण 230 समुद्घाल 231 सयोगकेवली गुणस्थान 230 साता वेदनीय 32 सासिशय प्रमत्त 224 साधारणशरीर 14. सासावनगुणस्थान 217 सुभगनामकर्म 145 सुस्वरनामकर्म 147 सूक्ष्मनामकर्म 129 सूक्ष्मक्रिमा प्रतिपाति 131 सूक्ष्मसांपरायगुणस्थान 227 हास्य 49 हुंडक संस्थान 95