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________________ -134] [१९३. संसारिजोवानां ही भेदो ] त: तत्र संसारिणो जीवा भव्याभव्यभेदेन द्विधा । [ १९४. भव्यजीवस्य लक्षणम् ] तत्र रत्नत्रयसा मायाः सकलकर्मक्षयं कृत्वानन्तज्ञाना विस्वरूपोपलब्धिभवनयोग्यशक्तिविशेषसहिता भव्याः । १९५. भव्यजीवानां चतुर्दशगुणस्थानानि ] तत्र चतुर्दशगुणस्थानवर्तिनो भय्याः । [ ९९६. अभव्यजीवस्य लक्षणम् ] एकस्मान्मिथ्यादृष्टिगुणस्यानादनिवर्तमाना अभव्याः । १९३. संसारी जीवोंके दो भेद संसारी जीव भव्य और अभव्य के भेदसे दो प्रकार के हैं । १९५. भव्य जीवोंके चौदह गुणस्थान ५१ १९४. भव्य जीवका लक्षण रत्नत्रय रूप सामग्रीके द्वारा समस्त कर्मक्षय करके अनन्त - ज्ञान आदि स्वरूप प्राप्ति होने योग्य शक्ति विशेषसे सहित जीव भव्य जीव कहलाते हैं । चौदह गुणस्थानों में स्थित भव्य होते हैं । १९६. अभव्य जीवका लक्षण केवल एक मिथ्यात्व गुणस्थान में ही रहनेवाले अभव्य जीव होते हैं ।
SR No.090237
Book TitleKarmaprakruti
Original Sutra AuthorAbhaynanda Acharya
AuthorGokulchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages88
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size1010 KB
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