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________________ --10४] कर्मप्रकृतिः [ १०१. वनाराचसंह्ननम्य लक्षणम् | यतो वनवत् स्थिरास्थिकोलकबन्धसामान्यवेष्टनं च भवति तवज्जना राचसंहननम् । [ १.२. नाराचसंह्ननस्य लक्षणम् ] यतो वनवत् स्थिरास्थिवन्धसामान्यक्रोलिकावेष्टनमेतद्वयं भवति तन्नाराचसंहनन नाम। [१०३. अर्धनाराचसंहननस्य लक्षणम् | यतस्सामान्धास्थिबन्धाधकीलिका भवति तवर्धनाराचसंहनन नाम । | १०४. कीलिससंहननम्य लक्षणम् | यतः कोलित इय सामान्यास्थिवन्धो भवति तत्कोलितसंहननं नाम । --. ... . १०१. वज्रनाराच मंहननका लक्षण जिसके कारण बचकी तरह स्थिर अस्थि तथा कोलक बन्ध होता है तथा वेष्टन सामान्य होता है। उसे बनमाराच संहनन कहते हैं । १०२. नाराच महननका लक्षण जिसके कारण वनको तरह स्थिर अस्थिवन्ध तथा सामान्य कोलक और वेष्टन होते हैं, उसे नाराच संहनन कहते हैं । १०३. अर्धनाराच संहननका लक्षण जिसके कारण सामान्य अस्थिबन्ध अर्ध कोलित होता है, उसे अर्ध नाराच संहनन कहते हैं। १०४. कोलित संहननका लक्षण जिसके कारण कोलितको तरह सामान्य अस्थिबन्ध होता है, वह कीलित संहनन है।
SR No.090237
Book TitleKarmaprakruti
Original Sutra AuthorAbhaynanda Acharya
AuthorGokulchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages88
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size1010 KB
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