SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 67
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ५४ कर्मप्रकृतिः [ २०३ [ २०३. प्रायोग्यतालब्धिः ] मायुर्थी जितसमकर्मणामुत्कृष्टस्थिति विशुद्धिपरिणामविशेषेण खण्डयित्वान्तः कोटिकोटिस्थिति स्थापयति, कतादाव स्थिपौल रूपघातिकर्मानुभागं खण्डयित्वा तावापद्विस्थानं स्थापयति, तद्विशुद्धि परिणाम योग्यतालाभः प्रायोग्यतालब्धिः । [ २०४. करणलब्धि | दर्शन मोहोपशमनादिकरणविशुद्धपरिणामः करण इत्युच्यते । तल्लाभः करणलब्धिः । २०२. देशनालब्धि P छह द्रव्य, पाँच अस्तिकाय, सात तथ्य तथा नव पदार्थोके उपदेश करनेवाले भाचार्य, उपाध्यायको देशनाका लाभ अथवा उपदेशक रहित क्षेत्रमें पूर्व उपदिष्ट जीव आदि तत्त्वोंके धारण, स्मरणका लाभ देशनालब्धि है | २०३. प्रायोग्यतालब्धि आयुको छोड़कर शेष सात कर्मोकी उत्कृष्ट स्थितिको विशुद्धि परिणामविशेष द्वारा खण्डित करके अन्तः कोटिकोटि प्रमाण स्थितिमें स्थापित करना । तथा लता, दारु (काष्ठ), अस्थि, शैलरूप घाति कमोंके अनुभागको खण्डित करके लता, दारूप दो स्थानों में स्थापित करना है। दस प्रकारकी विशुद्धिरूप परिणामोंकी योग्यताका लाभ प्रायोग्यतालब्धि है । २०४, करणलब्धि दर्शन मोहके उपशम आदि करनेवाला विशुद्धि परिणाम करण कहलाता है, उसका लाभ करणलब्धि है ।
SR No.090237
Book TitleKarmaprakruti
Original Sutra AuthorAbhaynanda Acharya
AuthorGokulchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages88
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size1010 KB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy