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प्रास्ताविक
कन्नड़ प्रान्तीय ताड़पत्रीय ग्रन्थसूची में अभयचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती कृत कर्मप्रकृतिको सात पापिया रेषयदि गया है। से
पर लेखन काल नहीं है। सभी की लिपि कन्नड है और भाषा संस्कृत ।
यह एक लघु किन्तु महत्त्वपूर्ण कृति है । इसमें सरल संस्कृत गद्य में संक्षेपमें जैन कर्म सिद्धान्तका प्रतिपादन किया गया है। पहली बार मैंने इराका सम्पादन और हिन्दी अनुवाद किया है। विषयके आधार पर मैंने पूरी कृतिको छोटे-छोटे दो सौ बत्तीस वाक्य खण्डों में विभाजित किया है ।
प्रारम्भमें कर्मके द्रव्यकर्म, भावकर्म, और नोकर्म ये तीन भेद दिये गये उसके बाद द्रव्यकर्मके प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश ये चार भेद बताये है। प्रकृतिके मूलप्रकृति, उत्तरप्रकृति और उत्तरोत्तर प्रकृति, ये तोन भेद हैं। मूलप्रकृति ज्ञानावरणीय आदिके भेदसे आठ प्रकारकी है और उत्तरप्रकृतिके एक सौ अड़तालीस भेद हैं। अभयचन्द्रने बहुत ही सन्तुलित शब्दोंमें इन सबका परिचय दिया है । उत्तरोतर प्रकृति बन्धके विषय में कहा गया है कि इसे त्रचन द्वारा कहना कठिन है । इसके बाद स्थिति, अनुभाग और प्रदेश बन्धका वर्णन हैं। भावकर्म और नोकर्मके विषयमें एक-एक वाक्य में कह कर आगे संसारी और मुक्त जीवका स्वरूप तथा जीवके क्रमिक विकासकी प्रक्रिया से सम्बन्धित पाँच प्रकारकी लब्धियों तथा चौदह गुणस्थानों का वर्णन किया गया है।
विषयके अतिरिक्त भाषाका लालित्य और शैलीको प्रवाहमयताके कारण प्रस्तुत कृतिका महत्त्व और अधिक बढ़ जाता है । साधारण संस्कृतका जानकार व्यक्ति भी अभय चन्द्रकी इस कृति जैन कर्म सिद्धान्तकी पर्याप्त जानकारी प्राप्त कर सकता है ।
कर्मप्रकृति के प्रारम्भ या जन्तमें अभयचन्द्रने अपने विषयमें विशेष जानकारी नहीं दी । अन्तमें केवल इतना लिखा है-
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