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________________ [ १६६. स्थितिबन्धकथनम् ] अथ स्थितिबन्ध उच्यते । [ १६७. स्थितिबन्धस्य लक्षणम् ] ज्ञानावरणीयाविप्रकृतीनां ज्ञानप्रच्छावनादिस्वस्वभावापरित्यागेनाय स्थानं स्थितिः । [ १६८ स्थितिबन्धस्य समयः | तत्कालश्चोपचारात् । स्थितिबन्धः [ १६९. ज्ञानावरणीयदर्शनावरणीय वंदनीयान्तरायस्य चोत्कृष्टा स्थितिः ] तद्यया ज्ञानावरणीय दर्शनावरणीय वेदनीयान्त रायप्रकृतीनामुत्कृष्ट्रा स्थिति स्त्रिंशत्कोटिकोटिसागरोपमप्रमिता । १६६. स्थितिबन्धका कथन अब स्थिति बन्ध कहते हैं । १६७. स्थितिबन्धका लक्षण ज्ञानावरणीय आदि प्रकृतियोंका ज्ञानको ढेंकने आदि रूप अपने स्वभाव को न छोड़ते हुए स्थित रहना स्थिति है । १६८. स्थितिबन्धका काल उसके कालको उपचारसे स्थितिवन्ध कहा जाता है । १६९. ज्ञानावरणीय आदि कर्मोंकी उत्कृष्ट स्थिति ज्ञानावरणीय दर्शनावरणीय, वेदनीय तथा अन्तरायको उत्कृष्ट स्थिति तीस कोटि-कोटि सागर प्रमाण है ।
SR No.090237
Book TitleKarmaprakruti
Original Sutra AuthorAbhaynanda Acharya
AuthorGokulchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages88
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size1010 KB
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