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________________ -१५७] कर्मप्रकृतिः [ १५४. तीर्थकरत्वनामकर्मणः लक्षणम् ] तीर्थकरत्वं नाम पञ्चकल्याणचतुस्त्रिशदतियायाष्टमहानातिहार्यसमवशरणादिबहुविधौचित्यविभूतिसंयुक्ताहन्त्यलक्ष्मी करोति । मोत्रम [ १५५. गोत्रकर्मणः द्वौ भेदौ] उच्चनीचभेदाद गोत्रकर्म द्विधा । [ १५६. उच्चगोत्रस्य लक्षणम् ] तत्र महायताचरणयोग्धोत्तमकुलकारणमुच्चेर्योत्रम् । [१५७. नीचगोत्रस्य लक्षणम् ] तद्विपरीताधरणयोग्यनीचकुलकारणं नोधैर्गोत्रम् । १५४, तीर्थकर नामकर्म तीर्थकर नाम कर्म पंच कल्याणक, चौतीस अतिशय, आठ प्रातिहार्य तथा समवशरण आदि अनेक प्रकारकी उचित विभूतिसे युक्त आर्हन्त्य लक्ष्मीको करता है। १५५. गोत्र कर्मके भेद उच्च और नीचके भेदसे गोत्र कर्म दो प्रकारका है। १५६. उच्च गोत्र कर्मका लक्षण महाव्रतोंके आचरण योग्य उत्तम कुलका कारण उच्च गोत्र कर्म कहलाता है। १५७. नीच गोत्र कर्मका लक्षण ऊपर बतायेके विपरीत आचरण योग्य नीच कुलका कारण नीच गोत्र है।
SR No.090237
Book TitleKarmaprakruti
Original Sutra AuthorAbhaynanda Acharya
AuthorGokulchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages88
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size1010 KB
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