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कर्मप्रकृतिः
इति सकलकर्म प्रकृति रहितसिद्धात्मस्वरूपं प्राप्तुकामा भव्या अनवरतं परमागमाभ्यासजनितनिर्मलसम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रतपोभावनानिष्ठा भवन्तु ।
जगन्ति शिलारोगमानसाः । अनन्तानन्तघी दृष्टिसुखवीर्या जिनेश्वराः ॥
कृतिरियमभयचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्तिनः ।
इति कर्मप्रकृतिः ।
इस प्रकार समस्त कर्मप्रकृतियोंसे रहित सिद्धोंके आत्म स्वरूपको प्राप्त करनेके इच्छुक भव्य जोब निरन्तर परमागम के अभ्यास द्वारा उत्पन्न निर्मल सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यग्चारित्र और तपकी भावनासे विशिष्ट हों ।
जिन्होंने समस्त पाप-मलके समूहको वो डाला है तथा अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त सुख और अनन्त वीर्यको प्राप्त कर लिया है, वे जिनेन्द्रदेव जयवन्त हों |
यह कृति अभयचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती की है।
कर्मप्रकृति समाप्त |