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कर्मप्रकृतिः
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[ २३२. मुकावस्थायाः स्वरूपम् ]
पुनः स एवायोगकेवली सकलशीलगुणसंपन्नो व्युपरत क्रिया निवृत्तिनामचतुर्थ शुक्लध्यानेन पञ्चलध्वक्षरांवर मात्र स्वगुणमाताद्विचरमसमये देहाविद्वासप्ततिप्रकृतीः क्षपयित्वा पुनश्चरमसमये - एकतरवेदनीयादित्रयोदशकर्मप्रकृतीः क्षपयित्वा तदनन्तरसमये निष्कर्माशरीरस्सम्यक्त्वाद्यष्टगुणपुष्ट परमशरीरात्किचिदून पुरुषाकारविशुद्धि ज्ञानदर्शनमयो जीवो घनस्वरूप ऊयंगमनस्वभावादेकस्मिन्नेव समये लोकाग्रं गत्वा सिद्धपरमेष्ठी सन्सर्वकालमनन्त सुखतः केवलज्ञानदर्शनद्वय निर्मललोचनद्वयेन त्रिकालगोचरानन्तद्रव्यगुणपर्यायान् लोकालोको च जानन् पश्यन्नवतिष्ठते । लोकादुहिः सति सहकारिधर्मास्तिकायाभावान्न गच्छति । अत एव लोकालोकविभागश्च ।
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२३२. मुक्तावस्थाका स्वरूप
फिर वही अयोगकेवली समस्त शील गुण संपन्न व्युपरत क्रिया निवृत्ति नामक चतुर्थ शुक्लध्यानके द्वारा पाँच लघु अक्षरोंके उच्चारण करने योग्य, अपने गुणस्थान कालके द्विचरम समयमें देह आदि बहत्तर प्रकृतियोंका क्षय करके फिर चरम समय में एकतर वेदनीय आदि तेरह कर्म प्रकृतियोंका क्षय करके उसके अनन्तर समयमें, निष्कर्म, अशरीर, सम्यक्त्व आदि अष्ट गुण युक्त, अन्तिम शरीरसे कुछ न्यून पुरुषाकार, विशुद्ध ज्ञान-दर्शनमय, धनस्वरूप जीव ऊर्ध्वगमन स्वभाव के कारण एक हो समयमें लोकके अग्र भागमें जाकर सिद्ध परमेष्ठी होकर, अनन्तकाल तक अनन्त सुखसे तृप्त केवलज्ञान तथा केनलदर्शनरूप निर्मल लोचन द्वयके द्वारा त्रिकाल गोचर अनन्त द्रव्य गुण पर्यायोंको तथा लोक अलोकको जानतादेखता अवस्थित रहता है। वह लोकके आगे, सहकारी धर्मास्तिकायके न होने के कारण, नहीं जाता। और इसीलिए लोक तथा अलोकका विभाग है ।