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कर्मप्रकृतिः :
[ २३१. अयोगकेवलिनाम चतुर्दशगुणस्थानम् ]
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पुनः स एव यचन्तमुहूर्तावशेषायु स्थितिस्ततोऽधिक शेषाघातिक मंत्रयस्थितिस्तदाष्टभिः समये दण्डकवाट प्रतरलोकपूरणप्रसर्पणसंहारस्य समुद्धातं कृत्वान्तर्मुहूर्तावशेषितायुः स्थिति समानशेषाघातिकर्मस्थितिसन् सूक्ष्मक्रियाप्रतिपातिना मतृतीयशुषलध्यानबलेन कायवाङ्मनो. निरोधं कृत्वायोगकेवली भवति । यदि पूर्वमेव समस्थिति कृत्वा घातिचतुस्तदा समुद्घात क्रियया विना तृत्तीयशुक्लध्यानेन योगनिरोधं कृत्वायोगकेवली भवति ।
प्रभासे देदीप्यमान परम औदारिक दिव्य देह से युक्त तीर्थंकर अथवा स्वयोग्य गन्धकुटी आदि विभूतिसे युक्त सामान्य केवली परम दिव्य ध्वनि द्वारा तीनों लोकोंके भव्य जनोंको प्रबोध देनेमें तत्पर सौ इन्द्रोंके द्वारा वन्दनीय सयोगकेवली तेरहवें गुणस्थानवर्ती हैं।
२३१. अयोगकेवली नामक चौदहवाँ गुणस्थान
फिर वही ( सयोगकेवली ) यदि अन्तर्मुहूर्त आयु स्थिति शेष रहने पर उससे अधिक शेष तीन अघातिया कर्मोकी स्थिति शेष रहती तो आठ समयों द्वारा दण्ड, कवाट, प्रतर, लोक पूरण, प्रसर्पण पुनः प्रतर क़पाट और दण्डरूप संहारके द्वारा समुद्घात करके, अन्तर्मुहूर्त अवशिष्ट आयु स्थिति के समान शेष घाति कर्मोकी स्थिति होनेपर सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाती नामक तृतीय शुक्लध्यान के बलसे मन, वचन, कायका निरोध करके अयोगकेवली होता है। यदि पहले हो घाति कर्मोकी स्थिति आयु कर्मको स्थितिके बराबर होती है, तब समुद्घात क्रियाके बिना तृतीय शुक्लध्यानके द्वारा योग निरोध करके अयोगकेवली होता है।