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कर्म प्रकृतिः
[ २२७. सूक्ष्मसांपरायनाम दशमगुणस्थानम् ]
चारित्रमोहनीयपुनः सूक्ष्मत्व (कृ) ष्टिगतलोभानुभागोक्यमनुभवन् प्रकृतीः क्षयोपशमयन्प्रतिसमय मनन्तगुणविशुद्धया वर्तमानः प्रशस्त ध्यानपरिणतः सूक्ष्मसाम्परायेति वशमगुणस्थानवर्ती भवति ।
[ २२८ उपशान्तकषायनाम एकादशगुणस्थानम् |
एकविंशतिचारित्रमोहनीयप्रकृतीः समः निरवशेषमुपशमय्य यथाख्यातचारित्ररूपविशद्विविशेष परिणतः कतकफलप्रयोगादधः कृताउपान्तिप्रसम्मतोयसदृशविशुद्धिपरिणामः शुद्ध (शु) प्याननिष्ठ कषाय- वीतरागध्वमस्य इत्येकादवा गुणस्थानवर्ती भवति ।
[ २२९. क्षीणकषायनाम दृहदशगुणस्थानम् ]
समस्त मोहनीयप्रकृतीनिरवशेषं निर्मूस्य स्फटिक भाजनगतप्रसन्नतोयसमविशुद्धान्तरङ्गो द्वितीयशुक्लध्यानबलेन ज्ञानावरणीयदर्शनावरणीयान्तरायरूपघातित्रयं क्षपयन् परमार्थनिर्ग्रन्थः क्षीणकषायवीतरागछद्मस्थ इति द्वादशगुणस्थानवर्ती भवति ।
२२७. सूक्ष्म सांपराय नामक दशम गुणस्यान
फिर सूक्ष्म कृष्टिगत लोभके अनुभागके उदयका अनुभव करता हुआ चारित्र मोहनीयको प्रकृतियांका क्षय या उपशम करता हुआ, प्रति समय अनन्तगुणी विशुद्धिमं वर्तमान प्रशस्त ध्यान परिणत, सूक्ष्मसांपराय नामक दशम गुणस्थानवर्ती होता है।
२२८. उपशान्त कषाथ नामक ग्यारहवाँ गुणस्थान
चारित्र मोहनीयको इक्कीस प्रकृतियोंका पूर्णरूपसे उपशमन करके यथाख्यात चारित्ररूप विशुद्धि विशेष परिणत कतक फल ( निर्मली ) के प्रयोग से नीचे बैठ गया है मैल जिसका ऐसे निर्मल जलके समान विशुद्ध परिणाम वाला शुक्ल ध्याननिष्ठ उपशान्त कषाय वीत - राग छद्मस्थ नामक ग्यारहवें गुणस्थानवर्ती होता है ।