________________
-१२६]
कर्मप्रकृतिः [ २२५. अपूर्वकरणो नामाष्टमगुणस्थानम् ]
पुन; क्षपकौणिमुपशमकणि वा समारुह्य प्रतिसमपमनन्तगणविशुद्धया वर्षमानो गुणधेणिनिराधारश्यकानि कुर्वन्नुत्तरोत्तरसमयेषु पूर्वपुर्वसमयाप्राप्तानपूर्वानेव विशुद्धिपरिणामान् प्रतिपद्यमानो जीव: क्षपक उपशमको वापूर्वकरणसंयत इत्यष्टमगुणस्थानवर्ती
भवति । [ २२६, अनिवृत्ति करणनाम नत्रमगुणस्थानम् ]
पुनरेकविंशतिचारित्रमोहनीयप्रकृतीः क्षपयन्नुपशमयंश्च प्रतिसमयं जघन्यमध्यमोत्कृष्टविकल्परहिततानाजीवानामक सदशदिशापारणासस्थानं प्रतिपद्यमानश्चानिवृत्तिकरणसंयत इति नवमगणस्थानवर्ती भवति ।
२२५. अपूर्वबारण नामक आश्वाँ गुणस्थान
फिर क्षपकणि अथवा उपमम श्रेणिका आरोहण करके प्रतिसमय अनन्तगुणी विशुद्धि-द्वारा बढ़ता हुआ गुणश्रेणि निर्जरा आदि आवश्यकोको करता हुआ उनरोत्तर समय में पूर्व-पूर्व समयमें अप्रास अपूर्व ही विशुद्धि परिणामोको प्राप्त करके क्षपक अथवा उपरामक जीव अपुर्वकरण संयत नामक अधम गुणस्थानवर्ती
होता है। २२६. अनिवृत्तिकरण नामक नत्रम गुगस्थान
इसके बाद चारित्र मोहनीयको इक्कीस प्रकृत्तियों का क्षय या उपशम करता हुआ प्रति समय जघन्य, मध्यम, उत्कृष्ट विकल्प रहित नाना जीवोंके एक सदृश विशुद्धि परिणाम स्थानको प्राप्त कर अनितिकरण संयत नामक नवम गुणस्थानवी होता है।