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कर्मप्रकृतिः
[ २२३. अप्रमत्तसंयतनाम सप्तमगुणस्थानम् ]
संज्वलनक्रोधमानमायालो भकषायमन्वानुभा गोवयात्सकल हिंसादिनिषुतिरुपसंयमे प्रमादरहिते वर्तमानो जीवोऽप्रमत्तसंयत इति सप्तमगुणस्थानवर्ती भवति ।
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[ २२४. सातिशयाप्रमत्तस्म लक्षणम् ]
स एव यदा क्षपकोपशमकश्रेण्यारोहणं प्रत्यभिमुखो भवति तवा करणत्रय मध्येऽषः प्रवृत्तकरणं करोतीति स एवं सातिशयाप्रमत इत्युच्यते ।
२२२. प्रमत्तसंयत नामक छठा गुणस्थान
प्रत्याख्यानावरण कषायोंके उदयके अभावमें महाव्रत रूप सकल संयमको प्राप्त करके संज्वलन नोकषायके मध्यम अनुभागके उदय के कारण पन्द्रह प्रमादोंमें वर्तमान जोव प्रमत्त संयत नामक छठे गुणस्थानवर्ती होता है ।
२२३. अप्रमत्तसंयत नामक सातवाँ गुणस्थान
संज्वलन क्रोध, मान, माया तथा लोभ कषायके मन्द अनुभागके उदयसे सकल हिंसा आदि निवृत्तिरूप प्रमाद रहित संयममें वर्तमान जीव अप्रमत्तसंयत नामक सप्तम गुणस्थानवर्ती होता है।
२२४. सातिशय अप्रमत्त संयतका लक्षण
वही जब क्षपक या उपशम श्रेणि चढ़नेके अभिमुख होता है, तब तीन करणों में से अधःप्रवृत्तकरण करता है, इसलिए वही सातिशय अप्रमत्त कहलाता है ।