Book Title: Karmaprakruti
Author(s): Abhaynanda Acharya, Gokulchandra Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 71
________________ ५ कर्मप्रकृतिः [ २१३पुनर्गणश्रेणिनिर्जरागुणसंक्रमस्थितिकाण्डकघातानुभागकाण्डकघाता. श्वेति चत्वाविश्यकानि न सन्ति, तत्कारणविशुद्धिवियोषाभावात् । [ २१३. अपूर्वकरणम् ] ततः परमपूर्वकरणप्रथमसमये गुणधेणिनिर्जरागणसंक्रमस्थितिकाण्डकघाताश्च प्रारम्यन्ते । अत्रापि अघन्यमव्यमोत्कृष्टा विशुद्धिपरिणामाधःप्रवृत्तपरिणामेन्यो संख्यातलोकगुणिताः सन्ति । तत्र प्रथमसमययतिनानाजीवविशुद्धिपरिणामा असंख्यातलोकमाता अकसंदृष्ट्या ४५६॥ एते सर्वेऽप्येकेनैव खण्डं बहुखण्डानीय सन्ति । उपरितनसमयपरिणामस्सादृश्याभावात् । द्वितीयसमयपरिणामा विशेषाषिकाः ४७२। एसेम्यक्षमेव । उपयंघोऽधस्वसादृश्याभावादबहुखण्डाभावः। - .---. समय अनन्तगुणा हीन होता है । संख्यात सहस स्थितिबन्धापसरण होते हैं तथा प्रति समय अनन्तगुणी वृद्धिके हिसाबसे विशुद्धि होती है। ये चार आवश्यक होते हैं । किन्तु गुणधेणी निर्जरा, गुणसंक्रम, स्थितिकाण्डकघात तथा अनुभागकाण्डकघात, ये चार आवश्यक नहीं होते हैं, क्योंकि इनके कारण विशुद्धि-विशेषरूप परिणामोंका अभाव है। २१३. अपूर्वकरण इसके बाद अपूर्वकरणके प्रथम समयमें गुणवेणि निर्जरा, गुणसंक्रम, स्थिति काण्डकघात तथा अनुभाग काण्डकघात प्रारम्भ होते हैं। यहां भी जघन्य, मध्यम, उत्कृष्ट विशुद्धि परिणाम अधःप्रवृत्तकरणके परिणामोंसे असंख्यात लोक गुणे होते हैं। यहाँ प्रथम समयवर्ती नाना जीवों के विशुद्धि परिणाम असंख्यात लोकप्रमाण होते हैं। उनकी अंक संदष्टि ४५६ है। ये सभी एक ही खण्डसे बहुत खण्डोंकी तरह होते हैं क्योंकि ऊपरके समयवर्ती परिणामोंके साथ सादृश्यका अभाव है।

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