Book Title: Karmaprakruti
Author(s): Abhaynanda Acharya, Gokulchandra Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 74
________________ २१७ ! कर्मप्रकृतिः स्थितो ज्ञानोपयोगवान् अनन्तानुबन्धिकोषमानमायालोभान्मिथ्यात्वसम्पमिथ्यात्वसम्यक्त्वप्रकृतिश्चोपशमय्य प्रथमोपशमसम्यक्त्वं गलाति । तस्य कालो जघन्योत्कृष्ट नान्तर्मुहूर्तः। [ २१६. सासादननाम द्वितीयमुणस्थानम् ] तपासमयादारभ्य षडालिसमयपर्यन्ते कालेऽवशिष्टं सति अनन्तानुबन्धिक्रोधमानमायालोभानां मध्येऽन्यतमस्य कषायस्योदये सति जीवः सम्यक्त्वं विराध्य यावन्मिथ्यात्वं प्राप्नोति तावस्सासावनसम्यवृष्टिद्वितीयगुगस्थानवर्ती भवति । [ २१७. साराादनगुणस्थानस्य काल: ] तस्य कालो जघन्य एकसमय उत्कृष्टः षडावलिमात्रस्ततः परं नियमेन मिथ्यात्वप्रकृतेरुवयान्मिथ्यादृष्टिर्भवति । २१५. अनिवृत्तकरणका विशेष उस अनिवृत्तिकरणके चरम समय में भव्य चारों गतियों में से किसी भी गतिमें वर्तमान, मिथ्यादृष्टि, संजी पंचेन्द्रिय, पर्याप्तक, गर्भज, जिसकी विशुद्धि बढ़ रही है, शुभ लेश्या वाला, जागृत, ज्ञानोपयोगवान्, अगन्तानुबन्धि क्रोध, मान, माया, लोभ, मिथ्यात्व, सम्बग्मिथ्यात्व तथा सम्यकप्रकृतिका उपशम करके प्रथमोपशम सम्यक्त्वको ग्रहण करता है। उसका जघन्य तथा उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। २१६. सासादम नामक हितोय गुणस्थान उसमें से एक समयसे लेकर षडावलि समय पर्यन्त काल शेष रहनेपर अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया तथा लोभमें से किसी एक कषायके उदय होनेपर जीव सम्यक्त्वको विराधना करके जब तक मिथ्यात्वको प्राप्त होता है, तब तक सासादन सम्यग्दृष्टि नामक द्वितीय गुणस्थानवर्ती होता है !

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