Book Title: Karmaprakruti
Author(s): Abhaynanda Acharya, Gokulchandra Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 43
________________ कर्मप्रकृतिः [१:४[ ११४. स्पर्शनामकर्मणः लक्षणम् ! तत्तत्वस्वशरीराणां स्वस्वस्पर्श करोति । [ ११५. आनुपूर्विनामकर्मणः नन्त्रागे भेदाः ] नारकतिर्यमनुष्यदेवगत्यानुपूविभेदादानुपूर्विनाम चतुर्धा । [ ११६. आनुपूर्विनामकर्मणः लक्षणम् | स्वस्वालिगमने विग्नहतो त्यक्तपूर्वशरीराकारं करोति। [ ११७. अगुरुलघुनामकर्मणाः लक्षणम् ] अगुरुलधुनाम स्वस्वशरीरं गुरुत्वलघुत्वजिसे करोति । इ. ११८, उपघातनामकर्मण: लक्षणम् ] उपघातनाम स्वबाघरकार मुसाशिरीरलं करोति । ११४. स्पर्श नाम कर्मका सामान्य लक्षण स्पर्श नाम कर्म उस-उम अपने-अपने शरीरका अपना-अपना स्पर्श उत्पन्न करता है। ११५. आनुपूर्वि नाम वर्मके भेद नरकगत्यानुवि, तिर्यग्गत्यानुपूवि, मनुष्यगत्यानुपूपिके तथा देव गत्यानुपूक्केि भेदसे आनुपूर्विके चार भेद हैं। ११६. आनुपूर्वि का लक्षण इसके कारण अपनी-अपनी गतिमें जाने के लिए विग्रहगतिमें पहले / छोड़े गये शरीरका आकार होता है । (११७. अगुमलघु नाम कर्मका लक्षण गुरुलघु नाम कार्म अपने-अपने शरीरको गुरुस्त्र और लघुत्वसे रहित करता है। ११८, उपपात शारीर नाम कर्मका लक्षण उपघात नाम कर्म अपनेको बाधा कारक तोंद आदि गरीरावयदोंको करता है।

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