Book Title: Karmaprakruti
Author(s): Abhaynanda Acharya, Gokulchandra Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 22
________________ - ] कर्मप्रकृतिः [ ३०. स्त्यानगृद्धेः स्वरूपम् । यस उत्यापितेपि पुनः पुनः स्वपिति निद्रायमाणे खोस्याय कर्माणि करोति स्वप्नायते जरूपति च सा स्त्यानतिः । वेदनीयम् [ ३१. वेदनीयम्य द्वे प्रकृतयः ] सातावेदनीयमलातावेदनीयं घेति वेदनीयं विषा । [ ३२. मानावेनीयस्य स्वरूपम् । तत्रेन्द्रियमुखकारणचन्दनकर्पूरसृावनिताविविषयप्रानिकारणं साता वेव नीयम् । [ ३३. अनातावदनोग्रस्य स्वरूपम् | इन्द्रियदुःखकारणविषशस्त्रानिकारकादिवव्यामिनिमित्तमसातादेव नीयम् । ३७. स्त्यानगुद्धिका स्वरूप जिसके कारण उठा देने पर भी फिर-फिर सो जाये, नोंदमें उठकर कार्य करे, स्वप्न देखें, बड़बड़ाये, उसे स्त्यानगृद्धि कहते हैं । ६१. घेदनीयके वा भेद - मानावेदनीय और असानावेदनीय, ये दो वेदनीयके भेद हैं । ३२. मानावंदनीयका स्वरूप इन्द्रिय-सुखके कारण चन्दन, कपर, माला, वनिता आदि विषयोंकी प्राप्ति जिससे हो, वह साताबेदनीय है। ३३. असातावेदनीयका स्वरूप इन्द्रिय-दुःखके कारण विष, शस्त्र, अग्नि, कंटक आदि द्रव्योंकी प्राप्ति जिसके द्वारा हो, वह असातावेदनीय है।

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