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उमणीसै साठे बीदासर रा ठाकर,
ल्याया इक पानै संस्कृत श्लोक लिखाकर ।। ४२. दीधो डालिम नै इणरो अर्थ बतावो,
श्री डालिम सूंप्यो कालूजी नै ठावो। 'शार्दूलविक्रीडित' श्लोक-अर्थ नहिं आयो,
कालू तिणनै अध्ययन-निमित्त बणायो।। ४३. अपणै पुरुषारथ रा कालू विश्वासी,
निरपेक्ष निरंतर रहणै रा अभ्यासी। आखिर बो पौरुष स्वयं सामनै आयो,
पुरुषार्थ भाग्य स्यूं शासण नै चमकायो।। ४४. कालू 'स्वामी'२ नै प्रतिक्रमण संभळाता,
अन्तिम आराधन कालू स्वयं कराता। मण-आर्त-गवेषण भीतर-भीतर करता,
छान-छानै निज गुप्त खजानो भरता।। ४५. अंतर-विनोद रो जब-जब अवसर आतो,
कालू रो अंकन स्वयं सहज हो ज्यातो। · विस्तर-भय स्यूं ओ प्रकरण अब विरमाऊं, श्री डालिम-कालू-चरणां में झुक ज्याऊं।।
"सुजनां! श्री कालूव्याख्यान ध्यान धरि सांभळो रे लोय।
४६. सुजनां! प्रमुदित सारो संघ, रंग रग-रग रम्यो रे लोय।
सुजनां! अभिनव खुशी उमंग, सहज में जी जम्यो रे लोय ।। ४७. सुजनां! आ पहलै उल्लास, ढाळ दसमी कही रे लोय।
सुजनां! कालूयशोविलास, सुणो बांचो सही रे लोय।।
१. देखें प. १ सं. २२ २. डालगणी ३. देखें प. १ सं. २३ ४. लय : भविकां! मिथुन उपर दृष्टान्त
उ.१, ढा.१० / ६१