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'छोड़ो टेक कुपथरी, मत ओढ़ो रे मनकल्पित सोड़ क । ढ़ो मनमातंग नै, है प्रोढ़ो रे कलियुग रो झोड़ कं । ।
११. अविचल वाणी वागरै, है सम्मुख संसद ज्यूं चित्रामक । आगम-भाषा सिद्ध है, दोन्यां रो हो संबंध सुयाम क ।। १२. आई दूजै संघ स्यूं, निर्ग्रथी हो तिण भेळो साधक ।
करै संभोग आहार रो, निज गण री हो कियो कुण अपराध क? १३. वैयावच री वर्जणा, बिन कारण हो की त्रिभुवनभाण क । स्पर्श रूप संभाविए, नर समझै हो जो चतुर सुजाण क ।। १४. व्यावच भेदां में गिण्यो, असणादिक रो आदान-प्रदाण क । इण पाठे पढ़णो नहीं, बारह - विध हो संभोग प्रमाण क ।। १५. भात-पाणी रो तीसरो, व्यावच रो हो नवमो संभोग क । दोन्यां नै इक लेखव्यां, क्यूं करता हो यूं पृथक प्रयोग क ।। १६. तिण कारण मुनि - साधवी बिन कारण हो भेळो आहार क ।
करै न दूषण रंच ही, ल्यो देखो ओ आगम-आधार क ।। १७. अबै विनायकजी वदै, इण पाठे हो नहिं किंचित ताण क ।
पिण कारण - अवलम्बका, है सारा हो कर देखो छाण क ।। १८. सुणो दास भगवानजी! म्हांरै तो हो थे ही मध्यस्थ क ।
निर्ग्रथी एकाकिनी, क्यूं आवै हो यदि होवै स्वस्थ क? १६. कारण में देणो कह्यो, असणादिक हो म्हांने मंजूर क।
पूछै जब भगवानजी, तब जम्पै हो गुरुदेव अदूर क ।। २०. है कारण उदर-व्यथा? ज्वर - पीड़ा ? हो या मस्तक - शूल क ?
प्रदर? भगन्दर? वातकी ? बतलाओ हो आगम- अनुकूल क ।। २१. संयम री स्वच्छंदता, इक व्याधी हो नहिं दूजो रोग क ।
ते पण मेण कारणे, धुर कीजे हो भैषज्य-प्रयोग क ।। २२. प्रायश्चित्त-विशुद्धता, अब बाकी हो नहिं कारण लेश क । भात - पाण तिण संग में, भोगवणो हो कह्यो वीर जिनेश क ।।
चूरू-चरचा मांही जी क, चूरू-चरचा मांही जी । तेरापन्थ भदंत सुजश झंडी फहराई जी ।।
१. लय : नींदड़ली हो वैरण होय रही २. लय : रूठोड़ा शिव शंकर म्हांरै घरै पधारोजी
उ. ३, ढा. ८ / २१३