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ने उसको सकुशल चंपानगरी तक पहुंचा दिया। जिनरक्षित के मन में देवी के प्रति जो अनुकंपा जगी, वह मोह अनुकंपा है। इसका आत्मविकास से कोई संबंध नहीं है।
८६. मेघकुमार अपने साधु-जीवन की प्रथम रात्रि में ही मानसिक उद्वेलन से पराभूत हो गया । वह घर जाने की अनुमति लेने के लिए भगवान महावीर के पास पहुंचा। भगवान उसकी मनःस्थिति से अवगत थे। उन्होंने अपने नवदीक्षित शिष्य को संबोधित कर कहा
'मेघ ! इतनी छोटी-सी बात में यह कायरता ! क्या तुझे अपना पिछला जन्म याद नहीं है? मेरुप्रभ हाथी के भव में तुमने जंगल की दावाग्नि से बचने के लिए एक बड़े भूभाग को निस्तृण बना डाला । जंगल में आग लगी। हवा के झोंकों से आग आगे बढ़ी। जंगल के पशु बचाव के लिए उस स्थान में इकट्ठे होते गए। वह लंबा-चौड़ा मैदान इतना भर गया कि एक पांव रखने के लिए भी स्थान नहीं रहा। तुमने खाज खनने के लिए पैर ऊपर उठाया, त्योंही एक खरगोश वहां आकर बैठ गया ।'
अपनी बात आगे बढ़ाते हुए भगवान बोले- 'तुमने पैर नीचे रखना चाहा, पर खरगोश को देखकर सोचा- जमीन पर पांव रखूंगा तो यह खरगोश कुचलकर मर जाएगा। इससे मेरी आत्मा पाप से भारी हो जाएगी । अहिंसा की विशुद्ध प्रेरणा तुम तीन पैरों के बल खड़े रहे। आग शांत हुई । पशु जंगल में गए। स्थान खाली देखकर तुमने पैर नीचे टिकाना चाहा, पर टिक नहीं सका । ढाई दिन तक अधर में रहने के कारण पांव इतना अकड़ गया था कि तुम नीचे गिर पड़े और तुम्हारा प्राणान्त हो गया। मेघ! तुम्हारी वह कष्टसहिष्णुता आज कहां चली गई ?'
मेघकुमार ने जातिस्मृति ज्ञान के आलोक में अपना पिछला जन्म देखा 1 वह प्रतिबुद्ध हुआ और पुनः संयम में सुस्थिर हो गया। भगवान महावीर द्वारा अनुमोदित मेरुप्रभ हाथी की अनुकंपा निरवद्य अनुकंपा है। क्योंकि उसकी पृष्ठभूमि में आत्मोदय का लक्ष्य था ।
६०. धर्मघोष नामक आचार्य चंपानगरी आए। उनके शिष्य परिवार में धर्मरुचि अनगार तपस्वी मुनि थे । एक मास की तपस्या के पारणे में वे आचार्य की आज्ञा से भिक्षा लेने के लिए गए । घूमते-घूमते वे नागश्री ब्राह्मणी के घर पहुंचे। नागश्री ने उस दिन भोजन सामग्री में तुम्बे का शाक बनाया। शाक चखने पर उसे भान हुआ-यह तो कड़वा तुम्बा है। खाने के योग्य नहीं है । वह उसे कूड़ेघर
परिशिष्ट-१ / ३०३