Book Title: Kaluyashovilas Part 01
Author(s): Tulsi Aacharya, Kanakprabhashreeji
Publisher: Aadarsh Sahitya Sangh

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Page 317
________________ परिवार में हुआ । विवाह के बाद वे गृहकार्य का संपादन करती हुईं भी धर्माराधना में सजग थीं। विवाह के कुछ वर्षों बाद अंकुरित वैराग्य का पौधा फिर हरा हो गया। उन्होंने अपने पति लक्ष्मणलालजी (बालचंदजी ) के सामने वैराग्य भावना प्रकट की । मौका देखकर ससुर तक भी अपनी बात पहुंचाई। किन्तु उन्हें आज्ञा नहीं मिली । रतनी बाई ने पूज्य कालूगणी के दर्शन कर कई बार दीक्षा की प्रार्थना की। तेरापंथ संघ में पारिवारिक जनों की आज्ञा के बिना दीक्षा नहीं हो सकती । इसलिए उनको दीक्षा के बारे में कोई आश्वासन नहीं मिला । रतनी बाई ने अपनी ओर से आज्ञा प्राप्त करने के लिए बहुत प्रयास किया, पर सफलता नहीं मिली। आखिर उन्होंने कहा - 'परिवार वाले दीक्षा की आज्ञा नहीं देंगे तो मैं आमरण अनशन कर लूंगी।' इस कठिन प्रतिज्ञा के बाद भी काम नहीं बना तो उन्होंने मनोबल के साथ सागारी अनशन स्वीकार कर लिया। दिन पर दिन निकलते गए, परिजनों का मन नहीं बदला। आखिर वि. सं. १६८६ कार्तिकी अमावस्या दीपावली के दिन अनशन के बहत्तरवें दिन उनका स्वर्गवास हो गया । यह घटना त्रिआयामी दृढ़ता का उदाहरण है। पहली दृढ़ता रतनी बाई की, जिन्होंने दीक्षा की आज्ञा न मिलने तक आहार का परित्याग किया। दूसरी दृढ़ता पूज्य कालूगणी की, जिन्होंने पारिवारिक जनों की आज्ञा प्राप्त हुए बिना दीक्षा नहीं दी। तीसरी दृढ़ता उनके पति की । उन्होंने यहां तक कह दिया था कि यह मर जाए तो भी मैं इसे दीक्षा की आज्ञा नहीं दूंगा । कहा जाता है कि उन दिनों महात्मा गांधी के समक्ष किसी भाई ने उक्त घटना की चर्चा की। उन्होंने उस पर टिप्पणी करते हुए कहा - इस मृत्यु में गुरुजी का कोई दोष नहीं है। क्योंकि अस्तेय व्रत को निभाते हुए वे पारिवारिक जनों की आज्ञा के अभाव में दीक्षा नहीं दे सकते थे। बहन को भी दोषी नहीं कहा जा सकता, क्योंकि वह वयस्क थी। अपने हित की सुरक्षा या प्राप्ति के लिए संघर्ष करने का उसे पूरा अधिकार था। घरवालों को उसकी भावना के प्रति इतना कठोर नहीं होना चाहिए था । १०६. वि. सं. १६८६ का चातुर्मास सरदारशहर करके आचार्यश्री कालूगणी रतनगढ़ होते हुए मार्गशीर्ष शुक्ला द्वादशी को राजलदेसर पधारे। वहां पोष शुक्ल पक्ष में गुरुदेव ने मुनि लच्छीरामजी को अनुशासन का उल्लंघन करने के कारण गण से बाहर कर दिया। उस समय उन्होंने अपनी भूल स्वीकार करते हुए जो लिखित लिखा, वह इस प्रकार है परिशिष्ट-१ / ३१३

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