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२१. बालचन्दजी बैद (जीली) २३. छोगमलजी बोथरा
२२. धनराजजी बरमेचा २४. तोलारामजी दूगड़ २६. डायमलजी चोरड़िया
२५. महालचन्दजी कोठारी
२७. बुद्धमलजी दूगड़
२८. दुलीचन्दजी दूगड़
७१. साध्वी निजरकुमारीजी के संबंध में आचार्यश्री तुलसी द्वारा कथित सोरठा
पाल्यो संयम भार, निरतिचार निर्मल सदा ।
श्रमणी निजरकुंवार, बेटी धनजी बैदरी ।।
७२. कुछ प्राणियों में परस्पर जन्मजात वैर होता है । संस्कृत वैयाकरणों ने ऐसे वैर को नित्य वैर के रूप में स्वीकार किया है । जन्मजात शत्रुता रखने वाले प्राणियों में कभी एकत्व की संभावना भी नहीं रहती। किंतु तीर्थंकरों के समवसरण में उनका शत्रुभाव सौहार्द में परिणत हो जाता है । इस तथ्य को ध्यान में रखकर वैयाकरणों ने एक सूत्र दिया - 'नित्यवैरिणाम्' । नित्य वैरियों में एकत्व स्थापना के उदाहरण हैं- अहिनकुलम्, अश्वमहिषम्, मार्जारमूषकम् आदि।
७३. देवा देवीं नरा नारीं, शबराश्चापि शाबरीम् ।
तिर्यञ्चोऽपीह तैरश्चीं, मेनिरे भगवद्गिरः ।।
७४. राजगृह नगर में लोहखुरो नामक चोर का बड़ा आतंक था। उसका पुत्र रौहिणेय भी चोरी करने में बहुत दक्ष था । मृत्यु का समय निकट जानकर पिता ने पुत्र को संबोधित करके कहा - 'बेटा! अंतिम शिक्षा दे रहा हूं, उसका जीवनभर पालन करना ।' रौहिणेय पिता का निर्देश जानने के लिए उत्सुक था । पिता ने कहा-‘पुत्र! राजगृह में महावीर नाम के एक श्रमण हैं, तुम भूल-चूककर उनके संपर्क में मत जाना। वे हमारे शत्रु हैं। उनके पास जाकर हम अपने कुलकर्म (चोरी) से दूर हो जाते हैं। यदि कभी संयोगवश साक्षात्कार हो जाए तो ध्यान रखना, उनकी वाणी तुम्हारे कान में न पड़े।' रौहिणेय ने अपनी ओर से पिता को आश्वस्त किया। लोहखुरो का शरीरांत हो गया ।
रौहिणेय के पास गगनगामिनी पादुकाएं और रूपपरावर्तिनी विद्या थी । इनके कारण उसका उत्पात और अधिक बढ़ गया। एक दिन वह दिन में चोरी करने के लिए घुसा। लोग सजग हो गए। उनका कोलाहल सुन रौहिणेय दौड़ा, पर जल्दी में अपनी पादुकाएं वहीं भूल गया। वह जिस मार्ग से दौड़ा, उसी के पास भगवान महावीर का समवसरण था । भगवान उस समय प्रवचन कर रहे थे । रौहिणेय को पता चला। वह अपना मार्ग बदले, इतना अवकाश नहीं था । उसने दोनों कानों
२६० / कालूयशोविलास-१