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क्या सकती थी?
गांव के बाहर एक मंदिर था। वहां एक बाबाजी रहते थे। गांव में बाबाजी की अच्छी प्रतिष्ठा थी। मंदिर में निरंतर सत्संग होता था। गांव की काफी महिलाएं सत्संग का लाभ उठाती थीं। सेठानी भी सत्संग में जाने लगी। वह सत्संग में बैठती, पर उसका मन वहां जमता नहीं था। उसकी उद्विग्नता बढ़ती रही। एक दिन संध्या के समय वह अकेली घर से निकली और मंदिर में पहुंच गई। उसने बाबा से मांगकर पानी लिया और वहीं जमकर बैठ गई। कुछ देर इधर-उधर की बातें कर वह बोली-'बाबा! आज रात को मैं यहीं सोऊंगी।' बाबा सहमे। उन्होंने अनुभव किया कि सेठानी की नीयत अच्छी नहीं है। वे शांत भाव से बोले-'हमारे मंदिर के परिसर में कोई अकेली औरत नहीं रह सकती। फिर आज तो दूसरे बाबा भी यहां नहीं हैं। तुम भले घर की औरत हो, चुपचाप यहां से चली जाओ। सेठानी ने लाज-शरम छोड़कर अपने मन की बात कह दी। बाबाजी का मन ग्लानि से भर गया। उन्होंने सेठानी को अविलम्ब मंदिर से बाहर जाने का निर्देश देते हुए कहा-'तुम जाती हो या नहीं? मैं किसी और को बुलाऊं?'
सेठानी निरुपाय थी। वह दुःखी मन से घर लौट गई। अब उसके मन में दूसरा विकल्प उठा। उसने सोचा-बाबा बहुत बुरा है। यदि यह मेरी बात फैला देगा तो कहीं की न रहूंगी। कितना अच्छा हो, इनका काम तमाम कर दूं। बहुत सोच-समझकर उसने मालपुए बनाए और बाबाजी के प्रति मन में जनमी हुई आंशका के कारण उनमें जहर मिला दिया। उसने मालपुओं को एक आदमी के साथ बाबाजी के पास पहुंचा दिया। बाबाजी तब तक अपना भोजन निपटा चुके थे। उस आदमी ने सेठानी के भेजे हुए मालपुए बाबाजी के आगे रख दिए। बाबाजी ने कहा-'मैं भोजन कर चुका हूं। अब मुझे जरूरत नहीं है।' वह आदमी बोला-'सेठानीजी ने कहा है कि यह मेरी भेंट बाबाजी को देकर ही आना है।' बाबाजी अनमने होकर बोले-'बड़ी विचित्र औरत है। कभी कुछ कहती है और कभी कुछ करती है।' उन्होंने नाराजी प्रकट करते हुए कहा-'वापस नहीं ले जाना है तो रख दो किसी अलमारी में।' आगन्तुक मालपुए वहां रखकर चला गया।
रात को दस बजे के बाद एक राहगीर मंदिर में आया और बोला-'बाबा! गांव में जाना है, पर अब तो देरी हो जाने के कारण दरवाजे बन्द हो गए हैं। रातभर यहां विश्राम कर सकता हूं क्या?' बाबा ने कहा- 'यहां बहुत स्थान है, आराम से ठहरो।' आगन्तुक बोला-'भूख बहुत लगी है, कुछ खाने को हो तो बताओ। बाबा ने कहा-मेरे पास तो कुछ है नहीं। तुम लोगों के घरों से ही आया
२६४ / कालूयशोविलास-१ .