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दूध की मांग की। बुढ़िया ने उसको समझाना चाहा, पर वह समझा नहीं।
बुढ़िया इतनी गरीब थी कि पाव भर दूध जुटा पाना संभव नहीं था। उसने पुत्र के मन को समाहित करने के लिए गेहूं के आटे का धोवन बना दिया और उसमें थोड़ी चीनी डाल दी। लड़का उसे दूध मानकर पी गया। अब यह प्रतिदिन का क्रम बन गया। बुढ़िया अपने पुत्र को दूध के नाम पर धोवन पिलाकर व्यथित थी। पर वह निरुपाय थी। और कुछ कर भी नहीं सकती थी।
राजकुमार कई दिनों से बुढ़िया के पुत्र को अपने घर आमंत्रित कर रहा था; पर वह इतना स्वाभिमानी था कि स्वीकृति ही नहीं दे रहा था। आखिर राजकुमार के अत्यन्त आग्रह पर उसने इस शर्त पर जाना स्वीकार किया कि एक दिन राजकुमार भी उसके घर भोजन करेगा।
प्रातराश के समय राजकुमार ने अपने परिचारक को निर्देश दिया-'आज दूध के दो कटोरे यहां पहुंचा दें।' रढ़ा हुआ मलाईदार दूध, ऊपर बादाम, नोजे, पिस्ते, इलायची आदि। राजकुमार ने एक कटोरा अपने मित्र के हाथ में थमा दिया और एक अपने हाथ में ले लिया। दूध देखते ही बुढ़िया के पुत्र को मितली आने लगी। दूध पर डाले हुए मेवे में उसको मक्खियों का आभास हुआ। उसने सोचा-बड़े घरों में नौकरों के हाथ से काम होता है। कौन संभाल रखता है रसोई की? मेरी मां मुझे कितना स्वच्छ दूध पिलाती है। यह ऐसा दूध मैं नहीं पी सकता।
राजकुमार ने मित्र की झिझक को बड़ी मुश्किल से तोड़कर उसे दूध पिलाने के लिए राजी किया। दूध पिया तो बड़ा रुचिकर लगा। ऐसा स्वादिष्ट दूध तो उसने कभी चखा ही नहीं था। दूध पीने से पहले उसकी झिझक स्वाभाविक थी, क्योंकि उसने सदा धोवन ही पिया था। धोवन पीने का आदी व्यक्ति दूध की गरिमा को कैसे पहचान सकता है।
५७. अवस्था से वृद्ध, शरीर से असमर्थ और भूख से व्याकुल वनराज वन के एक प्रान्तर में शांत भाव से बैठा था। शरीर और मन-दोनों का पराक्रम चुक जाने के कारण वह खाद्य-सामग्री उपलब्ध नहीं कर सकता था। सामने वृक्ष पर एक बन्दर बैठा था। उसका आमिष पाने के लिए वह उतावला था, पर शक्तिहीन था।
सिंह ने एक चाल चली। महात्मा का जामा पहना, वैराग्य का प्रदर्शन किया और आंखें जमीन में गड़ाकर चला। ऊपर से बंदर ने देखा। विस्मित हुआ। जंगल का राजा, इतना संयत और शांत! नीचे की टहनी पर बैठकर बंदर ने पूछा-'वनराज! आज यह क्या रूप बनाया है? यह वैराग्य कब से और क्यों है?' सिंह बोला-भाई! जीवन-भर पाप किया, अब अवस्था ढल रही है, मन संसार से उद्विग्न हो गया
२८२ / कालूयशोविलास-१