________________
१५. माणकगणी और डालगणी के अंतरिम काल में मुनि जयचंदजी कालूगणी के पास आकर बोले-आपकी धारणा क्या है? कालूगणी ने सीधा उत्तर दिया-'तू और मैं, दो तो आचार्य बनने वाले हैं नहीं, फिर अपन क्यों चिन्ता करें?' यह उत्तर सुनकर आगंतुक मुनि अवाक रह गए। विस्तृत विवरण पढ़ें, डालिम-चरित्र पृ. ५७, ५८। . १६. पक्खी के दूसरे दिन जेठांजी, मुक्खांजी आदि साध्वियां-खमतखामणा हेतु सन्तों के स्थान पर आईं। उस समय वहां उपस्थित दीक्षा-ज्येष्ठ मुनि भीमजी ने सन्तों को एकत्रित होने का निर्देश दिया। मुनि अभयरामजी ने शब्द किया
और कई संत वहां उपस्थित हो गए। किन्तु मुनि कालूरामजी (कालूगणी) ने इस प्रसंग का प्रतिरोध करते हुए कहा-'आचार्यों के सान्निध्य में होने वाली विधि का व्यवहार आचार्यों की उपस्थिति में ही होना चाहिए।' पूरा विवरण पढ़ें, डालिम-चरित्र, पृ. २१८ प. १ सं. ४६ ।
१७. 'बाबै स्यूं पिण डाई' यह एक मुहावरा है। इसका कथ्य है-अपने प्रिय और वरिष्ठ व्यक्ति के प्रति भी प्रतिकूल व्यवहार। इससे संबंधित घटना इस प्रकार
श्रेष्ठी की इकलौती पुत्री लाड़-दुलार में पलकर उच्छंखल हो गई। किसी का नियंत्रण उसे सही मार्ग पर नहीं ला सका। उसके दुष्ट स्वभाव की सूचना दूर-दूर तक फैल गई। लड़की शादी के योग्य हुई, पर कोई उसके साथ संबंध करने के लिए तैयार नहीं हुआ।
___ एक विधुर व्यक्ति शादी करना चाहता था। उसने सुना-लड़की वयस्क है, पढ़ी-लिखी है, रूपवती है और संपन्न पिता की पुत्री है, किंतु प्रकृति अच्छी नहीं है। वह उसके साथ शादी करने के लिए तैयार हो गया। मित्रों ने समझाया-'जान-बूझकर कर्कशा स्त्री के साथ क्यों बंध रहे हो?' वह बोला- 'मैं इसे ठीक कर लूंगा।'
शुभ मुहूर्त में विवाह-संस्कार संपन्न हुआ। विदा होने से पूर्व जामाता ने अपने ससुर से कहा-'मिट्टी के बर्तनों से भरी एक गाड़ी हमारे रथ से आगे-आगे चलेगी।' ससुरजी को आश्चर्य हुआ, पर नए जामाता के निर्देश की क्रियान्विति आवश्यक समझकर उन्होंने वैसी ही व्यवस्था कर दी।
वर-वधू रथ में बैठे हैं और आगे मिट्टी के बर्तन खड़खड़ा रहे हैं। वर ने गाड़ीवान को संबोधित कर कहा-'अपने इन बर्तनों को समझा दो, यह खड़बड़ाहट मुझे अच्छी नहीं लगती।' गाड़ीवान ने बर्तनों को व्यवस्थित रखकर बांध दिया।
२६० / कालूयशोविलास-१