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ने किया। क्योंकि भगवान को केवलज्ञान के आलोक में यह ज्ञात हो चुका था कि लब्धिप्रयोग साधु के लिए विहित नहीं है। छद्मस्थ अवस्था में प्रमाद होना असंभव नहीं है। भगवान महावीर के जीवन में ऐसा ही कुछ घटित हुआ, जिसका पूरा विवेचन भगवती सूत्र के पन्द्रहवें शतक में उपलब्ध है।
५३. 'सायां का खेड़ा' गांव के पास ही सिसोदा है। सिसोदा श्रद्धा का क्षेत्र है। उसके आसपास के क्षेत्रों की यात्रा के प्रसंग में वह क्षेत्र छूटना नहीं चाहिए, पर मूल ग्रन्थ में उसका उल्लेख नहीं है।
५४. एक भूखा ब्राह्मण कालिदास के पास पहुंचा। उसकी दयनीय स्थिति उसके आकार, वस्त्रों और शब्दों से अभिव्यक्त हो रही थी। वह बोला- 'कविवर! आपके सहयोग बिना महाराज भोज के निकट पहुंचना संभव नहीं है। आप कृपा करें तो मेरे लिए रोटी-पानी की जुगाड़ हो जाए।
कालिदास का मन करुणा से भर गया। उसने पूछा-'तुम कुछ पढ़े-लिखे हो?' 'नहीं, मैं तो कुछ नहीं जानता। ब्राह्मण का उत्तर सुन कालिदास बोला-'तुम अच्छी पोशाक पहनकर राजसभा में पहुंचो और राजा का अभिवादन कर एक शब्द बोलो- 'आशीर्वादः'। आगे की स्थिति मैं संभाल लूंगा।'
ब्राह्मण के लिए आशीर्वाद शब्द को याद रखना भी कठिन था। वह 'आशीर्वादः' रटता हुआ चल रहा था। रास्ते में एक ऊंट दौड़ रहा था। लोग चिला रहे थे- 'उष्ट्र: उष्ट्रः' । ब्राह्मण आशीर्वाद को भूल गया और 'उष्ट्र' शब्द को पकड़ लिया। 'उष्ट्र' शब्द भी उसकी पकड़ से निकल गया। अब वह 'उशरटः उशरटः' करता हुआ राजसभा में पहुंचा।
राजा भोज विद्वानों से घिरा बैठा था। नवागत पंडित ने दूर से ही राजा की ओर लक्ष्य कर कहा-'उशरटः' । वहां उपस्थित सब पंडित खिलखिलाकर हंस पड़े। कालिदास अपने स्थान से उठा और बोला-विद्वानो! आप लोगों को पंडित की पहचान नहीं है। नए अतिथि का इस प्रकार मखौल पांडित्य का उपहास है। हमारे अतिथि विद्वान ने चार अक्षरों में महाराज की स्तुति की है। उन्होंने कहा
उमया सहितो देवः, शंकरः शूलपाणिना।
रक्षतु त्वां हि राजेन्द्र! टकारः घनगर्जनात्।। कालिदास के सहयोग से वह महामूर्ख भी पंडित कहलाकर कृतार्थ हो गया।
५५. प्राचीन समय की बात है। एक ब्राह्मणपुत्र बारह वर्ष तक काशी में विद्याभ्यास कर अपने घर लौट रहा था। मार्ग में एक गांव से गुजरते समय वह
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