________________
मंगल वचन
दोहा
१. नमो वीर-मुख भारती, भविक भा रती हेत।
लहै मूक नर भारती, वाणी रै संकेत।। मैं भगवान महावीर के मुख से उद्धृत भारती [वाणी] को नमस्कार करता हूं। उसकी आराधना से भव्य जन आभा और आनंद को प्राप्त कर सकता है। उस वाणी से एक संकेत मिल रहा है कि उसके प्रभाव से गूंगा व्यक्ति भी बोलने लगता है।
२. ईभारी छारी अहो! वारि पिये इक घाट।
मंजारी-मूषक मिले, खिलै प्रेम की बाट।। ३. अश्व-महिष अहि-नकुल किल, हिलमिल करत मिलाप।
जिनवाणी रो ही सकल, अद्भुत प्रौढ़ प्रताप ।। (युग्म) जिन-वाणी का प्रताप अद्भुत और परिपक्व है-अच्छा परिणाम देने वाला है। उससे सिंह और बकरी एक घाट पर पानी पीते हैं। बिल्ली और चूहा-दोनों परस्पर मिलते हैं, उनमें प्रेम की वाटिका खिल जाती है। अश्व और महिष, सर्प
और नेवला-ये परस्पर प्रेमपूर्वक मिलते हैं, यह सारा जिनवाणी (वीतराग-वाणी) का ही प्रभाव है।
४. मनु संस्कृत वैयाकरण, सुमरत मन जिनतत्व। - कियो द्वन्द्व में उचित ही, नित्य-वैरि-एकत्व।।
१. देखें प. १ सं. ७२
१७६ / कालूयशोविलास-१