Book Title: Jayoday Mahakavya Ka Shaili Vaigyanik Anushilan
Author(s): Aradhana Jain
Publisher: Gyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
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महाकवि आचार्य ज्ञानसागर महाराज की साहित्य - साधना
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लेखक : मुनि 108 श्री सुधासागर जी महाराज
जैन साहित्य में चौहदवीं शताब्दी के बाद संस्कृत महाकाव्यों की विच्छिन्न श्रृंखला को जोड़ने वाले राजस्थान प्रान्त, सीकर जिला, राणोली ग्राम में पिता चतुर्भुज व माता घृतवरी की कोख से प्रसूत गौर - वर्णीय महाकवि भूरामल शास्त्री हुए हैं।
बचपन में ही ज्ञान अर्जन की ललक होने के कारण संस्कृत विद्या व जैन दर्शन में प्रवेश करने के लिए स्याद्वाद महाविद्यालय बनारस में शास्त्री तक अध्ययन किया । अध्ययन के उपरान्त सृजन साहित्य का लक्ष्य बनाया तथा आत्म उत्थान हेतु बाल ब्रह्मचारी रहने का संकल्प किया ।
ब्रह्मचारी बनकर संस्कृत साहित्य के लेखन करने में इतने निमग्न हो गये कि चार-चार महाकाव्यों सहित संस्कृत एवं हिन्दी भाषा में तीस ग्रन्थ लिखे । ‘णाणस्य फलम् उपेक्खा' कुंद-कुंद के इस सूत्र को जीवन में साकार करने के लिए अविरत दशा से आगे कदम बढ़ाते हुए देशव्रत रूप क्षुल्लक दशा को धारण किया । तदुपरांत चरित्र का चरमोत्तम पद महाव्रत - रूप दिगम्बरी दीक्षा धारण की तथा आचार्य वीर सागर, आचार्य शिव सागर महाराज के संघ को पठन-पाठन कराते हुए उपाध्याय पद से सुभोशित हुए। इसके बाद आचार्य पद को ग्रहण करके कई भव्य प्राणियों को मोक्ष मार्ग का उपदेश प्रदान कर अनेकों मुमुक्षुओं को मुनि दीक्षा से उपकृत किया । इन्हीं शिष्यों में प्रथम शिष्य ऐसी सुयोग्यता को प्राप्त हुए कि आज सारे विश्व के साधुओं में श्रेष्ठता को प्राप्त को गए, जिन्हें दुनियाँ "संत शिरोमणि आचार्य श्री विद्यासागर जी" के नाम से जानती है ।
जीवन के अन्त में अपना आचार्य पद इन्हीं " विद्यासागर " के देकर लगभग 180 दिन की "यम संल्लेखना " धारण की । अन्त में चार दिन तक चतुर्विद आहार के त्याग के साथ 1 जून, 1973 ज्येष्ठ कृष्णा अमावस्या को 10 बजकर 20 मिनट
पर नसीराबाद में पार्थिव शरीर को छोड़कर संसार का अन्त करने वाली समाधि को प्राप्त हुए अर्थात् समाधिस्थ हो गये ।
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