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जैन विद्या के क्षेत्र में समाजशास्त्रीय अध्ययन करने वाले शोध प्रबन्धों में अग्रणी डॉ. जगदीश चन्द्र जैन का "जैन आगम साहित्य में भारतीय समाज" नामक ग्रन्थ है किन्तु उसका विवेच्यकाल जहाँ समाप्त होता है प्रस्तुत शोधप्रबन्ध का विवेच्यकाल लगभग वहीं से प्रारम्भ होता है। इस प्रकार एक दूसरी दृष्टि से प्रस्तुत शोध प्रबन्ध डॉ. जगदीश चन्द्र जैन के ग्रन्थ का भी परिपूरक है। स्पष्ट है कि इस शोध प्रबन्ध ने उस विषय को छुपा है जो अब तक प्रायः अछूता ही था । उस अछूते क्षेत्र का एक महत्त्वपूर्ण दृष्टि से अनुशीलन करके विद्वज्जगत् के सन्मुख रखने के लिये निश्चय ही डॉ० मोहन चन्द धन्यवाद के पात्र हैं।
डॉ० मोहन चन्द ने जिस विषय का विवेचन किया है उस पर कोई भी निष्कर्ष ऐसे नहीं हो सकते जिन्हें निर्विवाद कहा जा सके किन्तु अनुसन्धान में जिन दो बातों का सर्वाधिक महत्त्व है-वैज्ञानिक पद्धति तथा वस्तुनिष्ठता अथवा तटस्थता-उनकी दृष्टि से प्रस्तुत शोध प्रबन्ध खरा ही उतरेगा। भविष्य में भी जो किसी अन्य परम्परा या युग के साहित्य का समाजशास्त्रीय अध्ययन करना चाहेंगे उनके लिये डा० मोहन चन्द के इस ग्रन्थ से मार्ग प्रशस्त होगा, ऐसा मैं समझता हूं। उनके ग्रन्थ का प्रस्तावनात्मक प्रथम अध्याय किसी भी भारतीय साहित्य के समाजशास्त्रीय अध्ययन की सैद्धान्तिक पृष्ठभूमि प्रदान करता है। इसमें उन्होंने भारतीय परम्परा के साथ पाश्चात्य परम्परा को भी समान महत्त्व दिया है जो कि विषय की प्रकृति के अनुसार आवश्यक था। दूसरे अध्याय के बाद के सभी अध्यायों के प्रारम्भ में लेखक ने जैन महाकाव्यों का अध्ययन करने से पूर्व पूरे भारतीय परिप्रेक्ष्य में भी तद्-तद्विषयक चर्चा पृष्ठभूमि के रूप में दी है। परिणामस्वरूप जैन संस्कृत महाकाव्य विषयक चर्चा को पाठक समग्र परिप्रेक्ष्य में रखकर देख सकता है। प्रत्येक अध्याय में दिये गये निष्कर्ष भी इस बात के सूचक हैं कि लेखक ने केवल स्रोत ग्रन्थों से तथ्यों को निकाल कर उनका वर्गीकरण मात्र ही नहीं किया है बल्कि उन तथ्यों को अपने मौलिक चिन्तन के संस्पर्श से सत्य में भी बदलने का विनम्र प्रयास किया है। साहित्य का इस प्रकार का समाजधर्मी अनुशीलन एक ऐसी सरणि प्रस्तुत करता है जिसके द्वारा प्राचीन साहित्य को वर्तमान युग में भी प्रासंगिक बनाया जा सकता है ।
मालोच्य काल भारतीय इतिहास का और विशेषकर जैन परम्परा के इतिहास का एक महत्त्वपूर्ण मोड़ है । जैनों ने एक अोर संस्कृत को अपना कर भारत की मुख्य धारा से जुड़ना चाहा तो वहाँ दूसरी ओर इसी युग में अनेकान्त की विशेष प्रतिष्ठा करके उस भावधारा को पुष्ट किया जिसे हम आज की भाषा में समन्वय-दृष्टि कहते हैं । शायद इसी समन्वय-दृष्टि की पृष्ठभूमि में रहने का परिणाम है कि प्रस्तुत ग्रन्थ का विषय जैन विद्या है किन्तु न इसका लेखक जैन है,