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कैकेयी का सारथ्य हृदय में ब्याह रचाने का स्वप्न लेकर कौतुक मंगलनगरी आए हुए हरिवाहन आदि, योद्धा बनकर समरांगण में आए। उनका सामना हो रहा था वीर दशरथ से, जो एकदम अकेले थे। कैकेयी ने उनके सारथ्य का उत्तरदायित्व अपने कोमल स्कंधों पर उठाया। अब नीडर दशरथ अकेले ही उस अनगिनत सुभटों पर बाणवर्षा करने लगे - सुभाषितकार कहते
NHATULDREN
एकेनाऽपि हि शूरेण पदक्रान्तं महीतलम्। क्रियते ही भास्करण स्फारस्फुरिततेजसा ।।
आकाशपट पर एक ही सूर्य बिराजमान है, परंतु वे अपनी तेजस्वी स्फुरायमान किरणों से पृथ्वी को एक ही पल में भर देता है। वैसे ही पराक्रमी पुरुष भले ही वह अकेला क्यों न हो? पृथ्वी को जित लेता है। दशरथ के सौभाग्य से उन्हें कैकेयी के रूप में कुशल सारथि मिला था। जिस प्रकार उत्तम प्रकार के सुवर्ण में जड़ने के कारण उत्कृष्ट रत्न की आभा में चार चाँद लगते हैं, उसी प्रकार अतुल्य योद्धा दशरथ के पराक्रम को साथ मिला सारथी कैकेयी के कौशल्य का ! दशरथ का रथ मन एवं मरुत् की गति से अधिकतर गतिमान होकर दौड रहा था और पराक्रमी दशरथ एक के पश्चात् एक शत्रुसेना के सुभटों के रथ एवं शस्त्रास्त्रों को क्षतविक्षत कर रहे थे। वीरत्व ने शत्रुओं को गलितगात्र बना दिया। जिस प्रकार शकेंद्र असुरों की सेनाओं को परास्त करते हैं एवं मृगेंद्र मृगों के झुंड को भयभीत करते हैं, उसी प्रकार दशरथ की शरवृष्टि ने समस्त शत्रुसैन्य को परास्त कर दिया। अंत में शत्रुराजा दातों में तृण लिए दशरथ के शरण में आए।
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