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स्वयंवर मंडप
जब राम मंच पर चढ़े, तब वहाँ न तो अग्नि शिखाएँ थी, न ही भयंकर सर्प । वातावरण में सन्नाटा छा गया। मंडप में उपस्थित सभीजन शांत बैठे। देवलोक से देव गण तथा अधोलोक से नाग, सर्प, पन्नग आदि विस्मयचकित हो यह अभूतपूर्व दृश्य देखने लगे। राम ने बजावर्त धनुष्य खिलौने की भाँति उठाया और लोहपीठ पर स्थापन किया, फिर उसे बेंत की तरह मोड़कर प्रत्यंचा चढाई । प्रत्यंचा कान तक खिंचकर ऐसा आस्फालन किया कि उस धनुष्य के टंकार की प्रतिध्वनि उर्ध्वलोक और अधोलोक में स्पष्ट सुनाई दी। हर्षोत्फुल्ल सीता ने राम के ग्रीवा में वरमाला पहनाई। इसके पश्चात् राम ने प्रत्यंचा पुनः उतार दी।
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राम की आज्ञा लेकर लक्ष्मण आगे बढ़े व तत्काल अर्णवावर्त धनुष्य पर प्रत्यंचा चढाई । धनुष्य का आस्फालन इतना तीव्र था कि दिग्गजों के पैर कंपायमान हुए। उस समय लक्ष्मण के वीरत्व से प्रभावित विद्याधरों ने अठारह लावण्यवती विद्याधरकन्याएँ लक्ष्मण को अर्पण की। चंद्रगति भामंडल आदि समस्त राजा निराश होकर अपने अपने नगर लौट गए।
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अहंकार ही मानव के दुःख का कारण है अहंकारी चंद्रगति और भामंडल मानते थे कि कोई भी मानव उन दिव्य धनुष्यों को उठा तक नहीं पायेगा । अतः विजय उन्ही की होगी। किंतु राम-लक्ष्मण ने धनुष्यों पर प्रत्यंचा लगाकर मानो उनके अहंकार का चूर्ण चूर्ण कर दिया। अंत में हताश, हतोत्साह बनकर उन्हें लौटना पड़ा।
जनकराजा ने अयोध्या निमंत्रण भिजवाकर दशरथराजा को बुलवा लिया। वे मिथिला पधारे और रामसीता की परिणय विधि महोत्सवपूर्वक संपन्न हुई। जनकराजा
के अनुज कनकराजा ने उसी सुमुहूर्तपर अपने सुप्रभारानी की पुत्री भद्रा का हाथ दशरथपुत्र भरत को सौंप दिया। दशरथराजा एवं उनके सभी मित्रगण ने राजपुत्र एवं पुत्रवधुओं के साथ अयोध्या की दिशा में प्रयाण किया। अयोध्या पहुँचते ही अयोध्यावासियों ने बड़े उत्साह तथा उमंग से नूतन दंपतियों का स्वागत किया व नगरप्रवेश करवाया।
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