Book Title: Jain Ramayan
Author(s): Gunratnasuri
Publisher: Jingun Aradhak Trust

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Page 131
________________ 118 परिशिष्ट - ७ भरत व भुवनालंकार हाथी के पूर्वभव भगवान ऋषभदेव ने दीक्षा ली, तब उनके साथ ४००० राजाओं ने भी दीक्षा ग्रहण की थी। भगवान मौन और निराहार यानी उपवास करके विहार कर रहे थे। कच्छ महाकच्छ ने अग्रणी मुनिओं को आहार ग्रहण की विधि पुछी, परंतु उन्होंने कहा "हम नहीं जानते। दीक्षा के पहले भगवान को पुछा नहीं और अभी भगवान मौन है, अब क्या करें ? घर जाना भी उचित नहीं और आहार के बिना यहाँ पर भी रह नहीं सकते।" ऐसे विचारों से सभी तापस बन गए। उनमें से दो तापस प्रहलाद राजा के पुत्र चंद्रोदय और सुप्रभराजा के पुत्र सूरोदय थे। भवभ्रमण करते चंद्रोदय गजपुर नगर में हरिमति राजा की रानी चन्द्रलेखा की कुक्षि से कुलंकर नामक पुत्र हुआ और सुरोदय उसी नगर में विश्वभूति ब्राह्मण की अग्निकुंडा पत्नी से श्रुतिरति नामक पुत्र हुआ । अनुक्रम से कुलंकर राजा हुआ। एक दिन वह तापस के आश्रम में जा रहा था। बीच में अवधिज्ञानी मुनि मिले। उन्होंने इस प्रकार कहा “हे राजन् ! तू जिसके पास जा रहा है, वह तापस पंचाग्नि तप कर रहा है। वहाँ पर दहन के लिये लाए हुए लकडे में एक सर्प है। वह सर्प पूर्वभव में क्षेमंकर नामक आपके दादाजी का जीव है। अतः उस लकड़े को चीराकर उनकी रक्षा करो।" यह सुनकर वह आकुल व्याकुल बना। उसने लकडे को चीराया और उसमें से निकले हुए सर्प को देखकर आश्चर्यचकित बन गया। “अरे ! मेरे दादाजी की यह हालत हुई। अगर मैं सावधान नहीं बनूँगा तो मेरी भी हालत ऐसी ही होगी।" इत्यादि शुभविचार की श्रेणी में चढ़कर वह वैराग्यवासित बना और दीक्षा की भावना जगी । इतने में पुरोहित श्रुतिरति वहाँ पर आकर इस प्रकार कहने लगा "हे राजन् जैनधर्म आपके कुल परंपरा से आया हुआ धर्म नहीं है फिर भी आपको यदि दीक्षा लेने की इच्छा हो, तो अंतिम अवस्था में दीक्षा लीजिएगा। अभी राज्य व्यवस्था में क्यों उद्विग्न बने हो ?" पुरोहित की बातें सुनकर राजा को दीक्षा लेने का उत्साह टूट गया। अतः वह अब विचार करने लगा कि, Jain Education International 'मुझे क्या करना चाहिये।' उसे उदास देखकर उसकी पत्नी श्रीदामा, जो श्रुतिरति पुरोहित के साथ दुराचार करती थी, वह शंकित हुई - "आज जरूर राजा ने हमारा अनैतिक संबंध जाना है। अतः वह हमें मारे नहीं, इसके पहले मैं उन्हें मार डालूं ।” ऐसा विचार कर पुरोहित की संगति से श्रीदामा ने विष देकर अपने पति कुलंकर राजा को मार डाला कितनी विचित्रता है कर्म की ! चन्द्रोदय तापस के जीव कुलंकर को, सूरोदय तापस के जीव श्रुतिरति ने मारने की अनुमति दे दी। धिक्कार है कामवासना को ! कि जिससे एक आर्य नारी ने अपने पति की हत्या कर दी। उसके बाद अनेक भव भ्रमण करके दोनों राजगृही में कपिल ब्राहाण की पत्नी सावित्री की कुक्षि से विनोद और रमण नाम के युगल भाई के रूप में उत्पन्न हुए। रमण वेद पढने हेतु देशांतर गया। विनोद की शादी शाखा नामकी कन्या के साथ हुई। काल व्यतीत होने. पर रमण पढकर रात्री के समय राजगृही में आया। उसे बेवख्त में आया जानकर चौकिदार ने नगर प्रवेश करने नहीं दिया। वह गाँव के बाहर सर्वसाधारण यक्ष के मंदिर में सो गया। उस समय दत्त नाम के एक ब्राह्मण द्वारा संकेत की हुई विनोद की पत्नी शाखा, वहाँ पर आई। उसके पीछे विनोद भी वहाँ पर आया शाखा ने यह दत्त है, ऐसा जानकर रमण को उठाया और उसके साथ रतिक्रीडा की। यह देखकर विनोद ने रमण के ऊपर तलवार से आक्रमण किया। रमण ने भी छुरी से उसका सामना किया, इसमें रमण मारा गया। शाखा ने रमण की छुरी से विनोद को मार डाला कितना विचित्र संसार है कि व्यभिचारिणी शाखा ने अपने पति की हत्या कर दी। विनोद मरकर अनेक भव भटककर धन नामक एक श्रेष्ठी पुत्र हुआ। रमण अनेक भव में भ्रमण कर लक्ष्मी की कुक्षि से धन का, भूषण नामक पुत्र हुआ। पिता के कहने से भूषण ने बत्तीस कन्याओं के साथ शादी की। एक रात्रि में वह अपने घर की छत पर अपनी पत्नियों के साथ क्रीडा कर रहा था उस रात्रि के चौथे प्रहर में श्रीधर मुनि को केवलज्ञान होने से देवता द्वारा किया गया उत्सव उसने देखा। अच्छे भाव जागृत होने से वह छत पर से उतरकर उन्हें वंदन करने जा रहा था, तब रास्ते में ही एक सर्प ने उसे काट दिया। For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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