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परिशिष्ट -८ राम-लक्ष्मण, विशल्या, बिभीषण,
रावण, सुग्रीव व सीता के पूर्वभव
दक्षिण भारत के क्षेमपुर नगर में नयदत्त नाम का एक वणिक् था। उसकी पत्नी सुनंदा की कुक्षि से धनदत्त और वसुदत्त का जन्म हुआ। उनका मित्र याज्ञवल्क्य था। उसी नगर में सागरदत्त की पत्नी रत्नप्रभा की कुक्षि से पुत्र गुणधर और पुत्री गुणवती का जन्म हुआ। युवावस्था प्राप्त होने से सागरदत्त ने अपनी पुत्री की सगाई धनदत्त के साथ की। परंतु माता रत्नप्रभा ने धन के लोभ में गुप्तरूप से धनपति श्रीकान्त के साथ उसकी सगाई कर दी। यह वृत्तान्त याज्ञवल्क्य ने अपने मित्र दोनों भाई को कहा। यह सुनकर छोटे भाई वसुदत्त ने रात्रि के समय श्रीकान्तशेठ के साथ लडाई की।
एक दिन वह घूमता घूमता अपने पूर्वभव की नगरी में आया। पूर्वभव का जन्मस्थान देखकर उसे जातिस्मरण ज्ञान हुआ। वहाँ पर राजपुत्र वृषभध्वज ने जिनमंदिर बनाया। मंदिर की दीवार पर मृत्यु की तैयारीवाले बैल को नमस्कार महामंत्र सुनाता हुआ पुरुष और उसके पास घोडे को चित्रित किया और जिनमंदिर की रक्षा करनेवाले चौकीदार को आदेश दिया कि यदि इस चित्र का परमार्थ कोई जान सके, तो उस व्यक्ति को मुझे बताना। इस प्रकार कहकर वृषभध्वज अपने घर चला गया। एक बार श्रेष्ठीपुत्र पद्मरुचि घूमते घूमते उस जिनमंदिर में आया। भगवान के दर्शन करके भित्ति-चित्र को देखकर आश्चर्य चकित होकर बोला कि, "यह सब मेरी ही घटना है।' चौकिदार ने वृषभध्वज को बुलाया। उसने आकर पुछा कि, “आपने चित्र का वृत्तान्त कैसे जाना?" तब पद्मरुचि ने कहा- "मृत्यु की, तैयारीवाले बैल को मैंने नमस्कार मंत्र सुनाया था। यह चित्र किसी जानकार व्यक्ति ने बनाया है।'' यह सुनकर वृषभध्वज बोला- "वह वृद्धबैल मैं ही था। नमस्कार महामंत्र सुनकर आज मैं राजपुत्र वृषभध्वज बना हूँ। यदि आप ने नमस्कार मंत्र सुनाया नहीं होता, तो मैं मरकर कोई जानवर के भव में उत्पन्न हो जाता। आप ही मेरे गुरु हो ! स्वामि हो ! देव हो ! मेरे अधिकार का राज्य आप ग्रहण कीजिये।"
परस्पर दोनों लडते लडते मर गये। मरकर दोनों विंध्याचल पर्वत के जंगल में हरण बने और गुणवती शादी किए बिना ही मरकर हरणी बनी। वहाँ पर भी पूर्वभव का वैरानुबंध होने से उस हरणी की प्राप्ति के लिये मरकर परस्पर वैरभाव से दोनों ने अनेक भवों में भ्रमण किया।
धनदत्त, छोटे भाई की हत्या से दुःखी बनकर धर्मरहित बने जंगल में भूखा, प्यासा भटकने लगा। एक रात्री उसने एक मुनिभगवंत को देखकर उनसे भोजन माँगा। तब मुनि ने कहा - "मुनि तो दिन को भी भोजन का संग्रह नहीं करते। अतः तुम्हें भी रात्रि को खाना, पीना उचित नहीं है। अंधकार के कारण उसमें उत्पन्न जीवोत्पत्ति को कौन पहचान सकता है। अतः रात्रि में भोजन का त्याग करना ही उचित है। रात्री-भोजन नरक का प्रथम द्वार है।" यह सुनकर वह श्रावक बना। वहाँ से मरकर पहले देवलोक में उत्पन्न हुआ। वहाँ से च्यवन कर महापुर नगर में धारिणी और मेरू का पुत्र पद्मरुचि, श्रेष्ठ श्रावक बना।
एक बार वह घोडे पर सवार होकर गोकुल में जा रहा था। बीच में मृत्यु की तैयारीवाले वृद्धबैल को देखकर वह घोडे पर से नीचे उतरा और उसके कानों मे नमस्कारमंत्र सुनाया। मरकर वह नमस्कार मंत्र के
प्रभाव से छत्रछाय राजा की पत्नी श्रीदत्ता की कुक्षि से वृषभध्वज नाम का पुत्र हुआ।
उसके बाद पद्मरुचि के साथ वृषभध्वज श्रावक व्रत का पालन करने लगा। मरकर दोनों ईशान देवलोक में महान ऋद्धिवाले देव बने। वहाँ से च्यवन कर वैताढ्य पर्वत के नंदावर्त्त नगर में पद्मरुचि का जीव नंदीश्वर राजा की पत्नी कनकाभा की कुक्षि से नयनानंद नामक पुत्र हुआ। वह मरकर माहेन्द्र नाम के चौथे देवलोक में उत्पन्न हुआ। वहाँ से च्यवन कर पूर्व विदेह में क्षेमापुरी के राजा विपुलवाहन की पत्नी पद्मावती रानी का श्रीचन्द्र नामक कुमार हुआ। उसने समाधि मुनि के पास दीक्षा ली। वहाँ से कालधर्म पाकर ब्रह्मनाम के पाँचवें देवलोक में इन्द्र हुआ। वहाँ से च्यवन कर महाबलवान राजा हुआ। वृषभध्वज का जीव सुग्रीव हुआ। श्रीकान्त का जीव भवभ्रमण करके मृणालकंद नगर में शंभु राजा हुआ । वसुदत्त भी अनेक भवों में भ्रमणकर मृणालकंद नगर में शंभु राजा के पुरोहित विजय की पत्नी रत्नचूड़ा की कुक्षि से श्रीभूति नामक पुत्र हुआ। म गुणवती भी अनेक भवभ्रमण करके श्रीभूति की पुत्री वेगवती बनी। यही वेगवती यहाँ से तीसरे भव में सीता बनी।
॥ गुणवती के अन्य भव देखिए परिशिष्ट २
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