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भी स्नेह रखता था। अतः उन छोटे बड़े बन्दरों की कोई भी हिंसा न करें, ऐसा उसने ढिंढोरा पिटवा दिया। राजा के आदेश से राज्य की
ओर से वानरों को भोजन वगैरह भी दिया जाने लगा। “यथा राजा तथा प्रजा" इस कथन के अनुसार प्रजा भी बन्दरों को भोजन देती व उन पर प्रेम रखती। ध्वज, छत्र वगैरह पर बन्दरों के चिन्ह बनाये जाने लगे। इस प्रकार वानर द्वीप में रहने से व ध्वज वगैरह पर वानरों के चिन्ह होने से विद्याधर मनुष्य भी वानर कहलाए। उनका वंश वानर वंश कहलाया। इस प्रकार वानर वंश की स्थापना हुई। इस वानर वंश का प्रारम्भ श्रीकण्ठ राजा से हुआ। श्रीकण्ठ का महापराक्रमी पुत्र वज्रकंठ था।
राज्यदरबार भी किस काम का? इस प्रकार निर्वेद पाकर उसने सोचा "अब मैं तप की साधना कर लूं। परन्तु शुद्ध तप वही हैं, जहाँ कषायों का शमन हो, भगवान का भजन हो, ब्रह्मचर्य का पालन हो, भगवान की आज्ञा का पालन हो। यह दीक्षा लेने के सिवाय संभव नहीं है। कषायों के शमन के लिये क्षमा, भगवान के भजन के लिये अवकाश, ब्रह्मचर्य के पालन के लिये नव गुप्तियों का पालन, पाप आने के कारणभूत आश्रवों को रोकना व भगवान की आज्ञा का पालन, दीक्षा के बिना संपूर्णतः सम्भव नहीं है।" इसलिये अपने पुत्र वज्रकण्ठ को राज्य सौंप कर श्रीकण्ठ ने चारित्र लिया व कठोर तप करके सभी कर्मों का नाश कर मोक्ष में गए। इसके बाद वानर वंश में घनोदधिरथ, किष्किन्ध, आदित्यरज व वाली वगैरह राजा हुए।
एक बार इन्द्र, देवों के साथ नन्दीश्वर द्वीप तीर्थ की यात्रा के लिये जा रहे थे। उनको देखते ही श्रीकण्ठ राजा को भी यात्रा का मनोरथ हुआ और वह भी विमान में बैठकर इन्द्र के विमान को अनुसरने लगा। प्रयत्न करने पर भी विमान आगे न बढ़ने से श्रीकण्ठ को बहुत दुःख हुआ। अररर ! यात्रा करने का भी मनोरथ सफल नहीं हुआ। उसने चिन्तन-सागर में मन्थन करते हुए सोचा - 'मैंने पूर्व भव में तप की साधना नहीं की, इसलिये यात्रा का मनोरथ सफल न हो सका। यदि मेरा यह मनोरथ सफल नहीं होता, तो राज्य भी किस काम का? पुत्र आदि परिवार भी क्या काम का ? पत्नी भी किस काम की?
यद्यपि वाली, सुग्रीव वगैरह वानर वंश के थे। किन्तु पवनंजय, हनुमानजी वगैरह वानर वंश के नहीं थे। वे विद्याधर वंश के थे। फिर भी उत्तरपुराण आदि रामायण के ग्रंथों के अनुसार वाली व सुग्रीव ने अपनी पुत्री पद्मरागा की शादी हनुमानजी के साथ की थी। इसलिये उनका ससुराल पक्ष वानरवंश का होने से वे वानरवंश के कहलाये, ऐसा रामायण ग्रंथों के चिन्तन से लगता है। वाल्मिकी आदि रामायण के ग्रंथों के अनुसार हनुमानजी बाल ब्रह्मचारी थे, उन्होंने शादी नहीं की। तत्व केवलज्ञानी जाने।
परिशिष्ट - ६ इंद्रजित, मेघवाहन, मंदोदरी के पूर्वभव
कौशाम्बी नगरी में प्रथम व पश्चिम नाम के दो गरीब भाई थे। से अपने भूतपूर्व भाई को राजपुत्र जानकर वह देव, मुनि के रूप में उसे एक बार भवदत्त मुनि से धर्म सुनकर दोनों ने दीक्षा ली।
प्रतिबोध करने आया। भाई के स्नेह से उसने पूर्व भव का सारा वृत्तान्त विहार करते दोनों मुनि कौशाम्बी पहुँचे। वहाँ पर वसंत ऋतु के
बताया। उसे जानकर जातिस्मरण हो जाने से रतिवर्धन ने निदान का उत्सव में खुशी का प्रसंग पाकर नंदिघोष राजा अपनी रानी के साथ
पश्चाताप कर दीक्षा ली। मृत्यु पाकर रतिवर्धन मुनि पाँचवें देवलोक में क्रीडा कर रहे थे। उसे देखकर पश्चिम मुनि ने निदान किया - "मेरे तप
देव बने । यद्यपि निदान करने वाला जीव पापानुबंधि पुण्य से वस्तु के प्रभाव से भविष्य में मैं इन दोनों का पुत्र बनूं।" यद्यपि दूसरे साधुओं
मिलने पर नरकादि दुर्गति में जाता है। परंतु वह, पश्चाताप से पाप का के द्वारा समझाने पर वे निदान से निवृत्त नहीं बने । मृत्यु के पश्चात्
अनुबंध तोडकर पुण्यानुबंधि पुण्य से देव बना। उसके बाद महाविदेह
के विबुद्धनगर में दोनों भाई राजा बने। दोनों दीक्षा लेकर १२वें देवलोक पश्चिम मुनि का जीव इन्दुमुखी रानी की कुक्षि से रतिवर्धन नामक पुत्र हुआ। क्रम से यौवनावस्था प्राप्त होने पर वह पिता की तरह पत्नियों
में गए। वहाँ से च्यवन कर रावण के पुत्र इंद्रजित व मेघवाहन बने।
रतिवर्धन की माता इंदुमुखी अनेक भवभ्रमण करके मन्दोदरी बनी। के साथ क्रीडा करने लगा। बडे भाई प्रथम मुनि, निदान रहित तप के फल स्वरूप पांचवें देव लोक में बहुत ऋद्धिवाले देव बने। अवधिज्ञान
कुंभकरण इंद्रजित, मेघवाहन व मन्दोदरी ने दीक्षा ग्रहण की।
तालिका इंद्रजित
मेघवाहन मन्दोदरी प्रथम
पश्चिम
रतिवर्धन इन्दुमुखी ५ वां देवलोक ५वां देवलोक अनेक भव राजा
राजा १२ वां देवलोक १२ वां देवलोक इंद्रजित
मेघवाहन मन्दोदरी
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