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परिशिष्ट- ४ जटायु का पूर्वजन्म
इस भरत क्षेत्र के कुंभकारकट नामक नगर में दंडक राजा राज्य करता था। उसकी शादी श्रावस्ती नगरी के राजा जितशत्रु की पुत्री पुरंदरयशा के साथ हुई। उसके भाई का नाम स्कंदकुमार था। एक बार दंडक राजा का मंत्री पालक श्रावस्ती नगरी में जितशत्रु राजा के राजदरबार में आया। उस वक्त तात्विक चर्चा चल रही थी। उसमें स्कंदकुमार ने पालक को पराजित कर दिया। उसे शरमिंदा होना पड़ा। अतः उसने अपने दिल में बदला लेने की एक गांठ बांध ली।
उसके बाद वैराग्यभाव जागृत होने पर स्कंद राजकुमार ने मुनिसुव्रत भगवान के पास ५०० राजपुत्रों के साथ दीक्षा ग्रहण की। विशिष्ट अध्ययन करने के बाद उन्हें आचार्यपदवी से विभूषित किया
गया।
एक बार मुनिसुव्रत स्वामी को पूछकर प. पू. आ. खंधकसूरीश्वरजी म. सा. ने अपनी सांसारिक बहिन पुरन्दरयशा को प्रतिबोध देने के लिए कुम्भकारकट नगर की ओर ५०० शिष्यों के साथ विहार किया। कई वर्षों से मन में रही वैरानुबंध की गांठ की स्मृति होने से पालक ने साधुओं के आवास योग्य उद्यान की जमीन में गुप्तरीति से शस्त्र गढ़वा दिए। क्रमशः विहार करते प. पू. आचार्य श्री कुंभकारकट नगर के बाहर उद्यान में पधारे। वहाँ दंडकराजा ( सांसारिक बहनोई) • आदि व प्रजाजन धर्मदेशना सुनने के लिए आए। सभी अत्यन्त प्रभावि व हर्षविभोर बने ।
दंडक राजा महल में आया, तब राजा को अकान्त में पालक मंत्री ने कहा "मुख में राम बगल में छूरी। यह सब बाहर का दीखावा है। वास्तव में ये आचार्य संयम की कठोर साधना से उद्विग्न बन गए है। इसलिए वे आपका राज्य हड़पने आए हैं। इनके साथ ५०० मुनि नहीं, परन्तु एक एक सहस्र योद्धा के बराबर है। उन्होंने उद्यानभूमि में शस्त्र गाढे हैं।" उसके बाद दंडक राजा ने जमीन खुदवाई। खोदने पर शस्त्र निकले। उन्हें देखकर राजा क्रोध से तमतमा उठा। उसने मंत्री से कहा- “हे मंत्री ! आप अतिशय बुद्धिशाली है... इसलिए आपने पहले ही सारा षड्यंत्र जान लिया। अब इनको जो सज़ा करनी हो, वह आप कर सकते हैं। मुझे इसके लिए पूछने की कोई ज़रुरत नहीं है।"
यह सुनकर द्वेषी पालक हर्ष विभोर बना। उसने मानव पीलन नामक विशाल यंत्र बनवाया और आचार्यश्री के समक्ष ही एक एक शिष्य को यंत्र में डालने लगा। आचार्यश्री एक एक साधु को निर्यमणा
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(अंतिम आराधना) करवाते रहें, समाधि रखने के लिए हरेक को समझाते कि पालक अपना दुश्मन नहीं है। यह तो भाई से भी ज्यादा उपकारी है, क्योंकि यह कर्मक्षय करने के लिए निमित्त बना है। इस प्रकार गुरुदेवश्री की वाणी का स्वीकार करते हुए ४९९ आत्माएँ पीला पीलाते केवलज्ञान प्राप्त कर मोक्ष में पहुंची।
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उसके बाद जब वह एक बालमुनि को यंत्र के पास ले गया, तब आचार्यदेवश्री ने करुणा से उसको कहा “मैं इस बालमुनि को पीलते हुए नहीं देख सकता, इसलिए पहले मुझे पील, बाद में जो उचित लगे, वह करना।” पालक ने कहा “तुम्हारे दिल में ज्यादा दुःख व दर्द हो, इसलिये तुम्हारे सामने ही पीलूंगा।" ऐसा कहकर उसने बालमुनि को यंत्र में डाल दिया। वे भी केवलज्ञान पाकर मोक्ष में गए। किन्तु आचार्य श्री खंधकसूरीश्वरजी म. सा. ने निदान किया कि मेरे तप का फल हो, तो मैं दंडक, पालक तथा उनके कूल और राष्ट्र का नाश करने वाला बनूं। पालक ने उनका पीलन किया। वे मरकर वह्निकुमार देव बने ।
उनका रजोहरण खून से लथपथ बन गया था। चील पक्षी उसे मांस-पिंड समझकर अपनी पक्कड़ में लेकर उड़ गया । परंतु उडते उडते पक्कड शिथिल होने पर वह पुरंदरयशा के आंगन में गिर गया। उसने जैसे ही उठाकर देखा, तो उसे ज्ञान हुआ कि यह तो मेरे द्वारा दिया गया मेरे भाई का रजोहरण (ओघा) है उसे महान ऋषि की हत्या का भयंकर दुःख हुआ। शासन देवी ने उसको उठाकर मुनिसुव्रत भगवान के पास रख दी। भाई के मृत्यु द्वारा वैराग्य से भावित बन कर उसने दीक्षा ली।
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वह्निकुमार खंधक देव ने अवधिज्ञान से निर्दोष ५०० मुनियों की हत्या जानकर दंडक, पालक व सारे नगर को जला दिया। किसी को बचने नहीं दिया। उस दिन से वह क्षेत्र दंडक राजा के नाम से दंडकारण्य कहलाया गया। पालक सातवीं नरक में गया। दंडक राजा पाप कर्म के कारण अनेक दुःखदर्दभरी योनिया में भटक कर अपने पाप कर्म के उदय से गंध नामक महारोगी गिद्ध पक्षी हुआ। सुगुप्त मुनि के दर्शन से उसे जातिस्मरण हुआ। मुनि स्पर्शलब्धिवाले थे। इसलिए उनके स्पर्श से गिद्ध पक्षी नीरोगी बन गया उसके पंख सुवर्णमय बन गए, चांच विद्रुमरत्न-सी व पद्मरागरत्न- से पैर, नाना रत्न जैसा शरीर और सिर पर रत्नांकुर जैसी जटा हो गई इसलिये यह जटायु कहलाया ।
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