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हनुमान को वैराग्य
एक समय हनुमानजी मेरुपर्वतस्थित
जिनालय में दर्शनार्थ गए थे। वहाँ से लौटते समय सूर्यास्त का दृश्य देखकर उनके मन में विचार आया, “जिसका उदय होता है, उसका अस्त अटल है। इस विश्व की प्रत्येक वस्तु अनित्य, अशाश्वत है, किसी न किसी दिन विनाश होनेवाली है। सामान्य जन उगते सूर्य को अर्ध्य प्रदान करते हैं, वंदन करते हैं, डूबता सूरज कितना अकेला होता है। कोई उसे न प्रणाम करता है, न उसके लिए आँसू बहाता है। सीताजी की शोध में जानेवाला मैं, उगते सूरज की भाँति था... आज भी हूँ.. किंतु आयुष्य के अंतिम क्षण तक पहुँचते पहुँचते में भी अस्तमान सूर्य की भाँति एकाकी हो जाऊँगा.. किंतु अभी समय है। ऐसा कुछ होने के पूर्व में भी शाश्वत सुख पाने के लिए पुरुषार्थ करूँ । संसार अशाश्वत है। क्षणिक एवं नाशवंत संसार को धिक्कार है! केवल दीक्षा के माध्यम से ही शाश्वत सुख पर स्वामित्व संभव है।"
मुनि हनुमान का विहार
इस प्रकार विचारकर वे अपने नगर पहुँचे। अपने पुत्र के हाथों में राज्य की बागडोर सौंपकर उन्होंने श्रीधर्मरत्नाचार्य महाराज से भागवती दीक्षा
की। उनके साथ साथ उनकी पत्नियों ने भी दीक्षा ग्रहण की। मुनि हनुमानजी ने ध्यानस्थ बनकर समस्त कर्मों का क्षय किया व मोक्षलक्ष्मी प्राप्त की।
हनुमानजी की दीक्षा के समाचार मिलते ही राम ने विचार किया कि, “सब भौतिक सुख उपलब्ध होते हुए भी हनुमान ने परमकष्टकारी दीक्षा क्यों ग्रहण की ?" उसी समय देव सभा में देवराज इंद्र ने अवधिज्ञान से रामचंद्रजी के विचार जान लिए व बोले, “रामचंद्रजी तो मोक्षगामी भव्य आत्मा हैं। वे इसी
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भव में मोक्ष पानेवाले हैं। फिर भी वे मानवलोक में चारित्र धर्म का उपहास एवं क्षणिक भोग सुखों की प्रशंसा कर रहें हैं ! यह कर्मों की कैसी विचित्र लीला है। मोहनीयकर्म की गति कौन समझ सकता है ? रामचंद्र के इस वर्तन का कारण है लक्ष्मण के प्रति उनका अगाढ स्नेह । इसी ममत्वभाव के कारण उनके अंतर में वैराग्य जागृत नहीं हो रहा है।"
देवसभा में बैठे दो देवों के मन में कौतुकभाव जागृत हुआ, वे विचार करने लगे कि "दो मानव भाईयों के बीच यह कैसा प्रेमभाव है, जिसकी प्रशंसा देवलोक में स्वयं देवेंद्र कर रहे हैं।" अतः इस स्नेहभाव की परीक्षा करने वे देवलोक से अयोध्या नगरी में लक्ष्मणजी के प्रासाद में आए और वहाँ देवमाया से एक ऐसा दृश्य निर्माण किया कि राम का मृत्यु हो गया है। अन्तःपुर की स्त्रियाँ आक्रन्दन कर रही हैं "हे राम ! हे पद्मनयन !! समस्त विश्व के लिए अभयंकर ऐसे हमारे रामचंद्रजी की असमय मृत्यु कैसे हो गई ?"
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