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32 लक्ष्मणजी के शवसमेत रामचंद्रजी का वनविचरण
अपने प्राणप्रिय अनुज के असमय एवं अकस्मात् मृत्यु से निर्माण
आए हो ! जाओ अपने भ्राताओं की अंत्येष्टि करो । मेरा अनुज, मेरा विषम परिस्थिति और दो युवा पुत्रों के वियोग के कारण अन्यमनस्क
वत्स लक्ष्मण तो दीर्घायु है। हे अनुज ! अपना क्रोध त्याग दो। मुझसे रामचंद्रजी बार-बार मोहवश होकर मूर्च्छित होने लगे। वे कभी प्रलाप
कुछ तो बोलो। हे वत्स ! दुर्जनों की भाँति कोपायमान होना तुम्हारे करते थे, "हे अनुज ! तुम्हें मृत मानकर मेरे युवा पुत्रों ने गृहत्याग
लिए उचित नहीं है।" इस प्रकार बोलते हुए रामचंद्रजी ने अपने अनुज किया है। अतः हे अनुज ! विना विलंब किए तुम उठ जाओ ! सत्वर
का शव अपने स्कंधों पर उठाया और वहाँ से चल दिए। उठो!" रामचंद्रजी का यह उन्मत्त-सा भाषण सुनकर बिभीषण गद्गद् होकर बोले, “हे रामचंद्रजी ! आप धैर्यवान पुरुषों से अधिक धैर्यवान,
रामचंद्र कभी लक्ष्मण के मृत शरीर को स्वयं स्नान कराते, तो वीरों में महावीर हो, फिर भी सत्यस्थिति को स्वीकार क्यों नहीं कर
कभी विलेपन करते। कभी उसके लिए भोजन की थाली परोसते, तो रहे हो ? आपका यह अधैर्य लज्जास्पद एवं जुगुप्सा प्रेरक है। अब हम
कभी उत्संग में बिठाकर उन्हें चूमते । कभी उसे कपडे पहनाते, तो सब को एकत्रित होकर अपने प्रिय शासक राजा लक्ष्मणजी का
कभी उसके समीप स्वयं निद्रा लेते थे। यहाँ एक तात्विक बात जानना अग्निसंस्कार एवं उत्तरक्रिया करनी चाहिये।" बिभीषण के शब्द सुनकर
आवश्यक है कि वासुदेव का शरीर विशिष्ट परमाणुओं से बनने के क्रोधावेश से तिलमिलाते हुए रामचंद्रजी बोले, “आप सब मुझे अकेला
कारण मरणोपरांत छः मास तक सडता नहीं है। सामान्य मानवी का क्यों नहीं छोड़ देते ? मेरे जीवित भाई का अग्निसंस्कार करने चले
मृतक तो कुछ ही समय में सड़ने लगता है। जटायुदेव द्वारा रामचन्द्रजी को प्रतिबोध
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