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16 जटायुसे मिलन
राम-लक्ष्मण द्वारा उपसर्ग का
निवारण सूर्यास्त के पश्चात् अनंगप्रभ नामक देव उस स्थान पर आया। उसने उपद्रव आरंभ किया। राम व लक्ष्मण उसे मारने के लिए उद्यत बने। उनके क्षात्रतेज को सहना देव के लिए अशक्य हो गया, अतः वह वहाँ से भागा । मुनिद्वय को केवलज्ञान की प्राप्ति हुई।
त्रिगुप्त मुनि का राम आदि को प्रवचन । दंडकारण्य में महागिरि की एक गुफा को इस त्रिपुटी ने अपना अस्थायी आवास बनाया। एक दिन त्रिगुप्त व सुगुप्त नामक दो चारण मुनि आकाशमार्ग से मासक्षमण तप के उद्यापनार्थ वहाँ पधारे । राम लक्ष्मण ने उन्हें वंदन किया व सुपात्र दान का लाभ लिया।
देवों ने वहाँ आकर केवलज्ञान महोत्सव मनाया । वंशस्थल के राजा सूरप्रभ भी वहाँ पधारे और राम का सम्मान व आदरसत्कार किया। उस पर्वत पर अहँत प्रभु का चैत्य बनवाया। तब से वंशशैल्य पर्वत रामगिरि नाम से प्रसिद्ध हुआ। रामगिरि से निकलकर रामचंद्र, लक्ष्मण व सीता ने दंडकारण्य में प्रवेश किया।
उस समय प्रसन्न होकर देवों ने स्वर्लोक से रत्न एवं सुगंधित जल की वृष्टि की। उसी समय कंबुद्वीप के विद्याधरों के राजा रत्नजटी व दो देव भी वहाँ पधारे। उन्होंने प्रसन्न होकर राम को अश्वों सहित उत्तम रथ अर्पण किया । सुगंधित जलवृष्टि से आकृष्ट होकर गंध नामक एक रुग्ण पक्षी वृक्ष से नीचे उतरा । मुनि के दर्शनमात्र से उसे जातिस्मरण ज्ञान प्राप्त हुआ। वह बेहोश होकर गिर पड़ा। सीता ने उसके शरीर पर शीतल जड छींटका। होश में आते ही उसने मुनियों के चरणों को स्पर्श किया। मुनि के स्पौषधि लब्धि के माध्यम से वह तत्काल निरोगी बना। उसके पंख कंचनमय बने व मस्तक पर रत्नांकुर की श्रेणीसमान जटा बन गई। इससे उसका नाम जटायु रखा गया। राम ने मुनि से पूछा, "मांसभक्षक यह पक्षी आपश्री के चरणों में आते
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