Book Title: Jain Ramayan
Author(s): Gunratnasuri
Publisher: Jingun Aradhak Trust

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Page 79
________________ 66 पकड़ो... पकड़ो... मार डालो" चिल्लाता रहा, परंतु हनुमान का रौद्रस्वरूप देखकर कोई भी रक्षक उनके समीप जाने का साहस न कर पाया। हनुमान ने पादप्रहार कर लंका के अत्युच्च प्रासाद, हवेलियाँ, अटरियाँ भी चूर्णचूर्ण कर दी। फिर किष्किंधापुरी पहुँचे। राम को प्रणाम कर उन्होंने सीताजी का चूडामणि उनको अर्पण किया। चूडामणि 20 राम एवं उनके सुभट अब लंकाविजय के लिए रवाना हो गए। रास्ते में वेलंधर नगर होकर उसके राजा समुद्र एवं सेतु को साथ लेकर राम सुवेलगिरि आए। वहाँ के शासक हंसरथ का पराभव कर वहीं राम ने अपना अस्थायी आवास बनाया। राम धीरे धीरे लंका के समीप आ पहुँचे हैं, यह जानकर हस्त, प्रहस्त, मारीच, सारंग आदि रावण के सुभट युद्ध के लिए सज्ज हो गए। रावण ने शंखनाद किया। रणभेरियाँ बजने लगी। युद्ध प्रारंभ विभीषण ने शिष्टता की अंतिम चेष्टा प्रारंभ की। वे रावण के समक्ष जाकर कहने लगे, "हे भ्राता ! परस्त्री का अपहरण धार्मिक एवं सामाजिक नीतिनियमों के विपरीत है। यह जघन्य कृत्य इस जन्म में कुल का विनाश व परलोक में दुर्गति की प्राप्ति कराता है। राम अपनी पत्नी को प्राप्त करने के लिए पधारे है। उनका स्वागत कीजिए, आतिथ्य कीजिए व सम्मान सहित उन्हें सीता लौटा दीजिए। राम सीता को लेने आये हैं व उन्हें लेकर ही जाएँगे। यदि आप सम्मानसहित सीताजी को लौटाते हैं, तो अनर्थ टलेगा। किंतु यदि आप राजहठ पर अडे रहेंगे, तो प्रलय होगा, अपने कुल का विनाश हो जाएगा। - विद्याधर साहसगति एवं खर का नाश करने वाले लक्ष्मण लंका में क्या नहीं करेंगे ? इसका कभी विचार किया है आपने ? हनुमान तो राम का साधारण सेवक है, किंतु क्या उसका प्रभाव एवं प्रकोप आपने देखा नहीं ? आप इंद्र राजा से अधिक धनवान है, किंतु आपकी लंपटता के कारण यह सब व्यय हो जाएगा।" देखते ही रामचंद्र का कंठ गद्गद् हो गया, मानो साक्षात् सीताजी ही उनके समक्ष खड़ी हो राम बार बार उस चूडामणि को अपनी छाती से लगाते रहे, फिर उन्होंने हनुमान को पुत्र के समान आलिंगन दिया व मस्तकावघ्राण किया । इसके पश्चात् हनुमानजी ने अपनी लंकायात्रा का रोचक व रोमहर्षक अनुभव सब को सुनाया। रावण कुछ कहे, इसके पूर्व इंद्रजित कहने लगा, "काकाश्री! आप तो जन्म से ही भीरु व कायर रहे हैं। आपके ही कारण हमारा कुल दूषित हुआ है क्या आप वास्तव में चंडपराक्रमी रावण के अनुज है ? Jain Education International मेरे पिताश्री ने इंद्र राजा को पराजित कर उसके राज्य को जित लिया है, उनका अपमान करनेवाले आप क्या मरना चाहते हैं ? इसके पहले भी असत्य बोलकर आपने पिताश्री को फँसाया था। आपने तो भरी राज्यसभा में दशरथ एवं जनकवध करने की प्रतिज्ञा की थी क्या हुआ आपकी प्रतिज्ञा का ? क्यों पूर्ण नहीं हो पायी आपकी प्रतिज्ञा ? अरे आप इतने बुद्धिहीन हैं कि मूर्ति व मानव के बीच क्या अंतर होता है, यह भी समझ नहीं सके। आप गए तो थे दशरथ की हत्या करने, और किसकी हत्या की ? मूर्ति की....! और यहाँ असत्य बोलकर हमें ठगा। अभी आप मेरे वीर पिताश्री के मन में राम का भय निर्माण करने की चेष्टा कर रहे हो। मैं तो मानता हूँ कि आप राम के ही पक्ष में है, कदाचित् आप राम के गुप्तचर भी हो सकते हैं। मंत्रणा करने का आपका कोई अधिकार नहीं मंत्रणा तो आप्तमंत्रियों के साथ राजा व स्वराज्य की सुरक्षा एवं शुभकामना के लिए की जाती है। आप जैसे आप्त से तो शत्रु भला " बिभीषण ने कहा "हे वत्स इंद्रजित मैं तो शत्रु के पक्ष में नहीं परंतु पुत्र के रूप में ज़रूर तुम ही शत्रु हो। तुम्हारे पिताश्री कामांध तो हैं ही, परंतु उन्हें अपने बल और ऐश्वर्य का मिथ्या अभिमान भी है। उनका समर्थन करनेवाले तुम कुलविनाश के लिए उत्तरदायी बनोगे । तुम अभी बालक हो, क्या तुम जानते हो कि तुम कितने बड़े विनाश को निमंत्रण दे रहे हो ?” फिर उसने रावण से कहा, “अपने दुश्चरित्र के कारण आप का पतन होगा और आपका यह पुत्र उस पतन में आपके साथ होगा।" यह सुनते ही रावण का क्रोधाग्नि प्रज्वलित हुआ व उसने अपना खड्ग उठाया। बिभीषण भी भौंहें चढाकर हाथ में एक स्तंभ लेकर अपनी रक्षा करने के लिए खड़ा हुआ। किंतु कुंभकर्ण For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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