Book Title: Jain Ramayan
Author(s): Gunratnasuri
Publisher: Jingun Aradhak Trust

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Page 99
________________ 86 आज्ञाधारी कृतान्तवदन तत्काल सीताजी के प्रासाद पहुँचा व उन्हें बोला, "रामचंद्रजी ने मुझे आपको सम्मेतशिखरजी की यात्रा कराने का आदेश दिया है। यात्रारंभ इसी क्षण होगा ऐसी आज्ञा है ।" निःशंक मन से सीताजी रथ में बिराजमान हुई। पथ पर बहुत दुर्निमित्त एवं अपशकुन हुए। परंतु पति की आज्ञा को स्वधर्म मानने वाली सती सीता तनिक भी विचलित नहीं बनी। अयोध्या की सीमाओं से निकलकर रथ बहुत दूर तक जाकर क्रमशः सिंहनिनाद नामक घोर वन में रुका। सारथी कृतान्तवदन रथ से उतरकर अधोमुख खड़े हुए । उनके आँखो से अश्रुधारा बह रही थी। उनका म्लान मुख देखकर सीताजी ने कहा, "सेनापति कृतान्तवदन रथ क्यों रोका गया है? आप शोकमग्न होकर इस तरह क्यों खडे हैं ?" internation PILIP SON रथ में से सीता का गिरना कृतान्तवदन ने कहा, "मैं आपका सेवक हूँ, अतः न आपके साथ दुर्वचन बोल सकता हूँ, नहीं दुर्व्यवहार कर सकता हूँ। किंतु सेवक होने के कारण यह जननिंद्य कर्म करने के लिए विवश हूँ । कामी रावण के आवास में आप दीर्घकाल रही हैं, अतः उत्पन्न हुए लोकापवाद के भय से रामचंद्रजी ने मुझे आपको वन में ले जाकर वहीं आपका त्याग करने का आदेश दिया है। राजा लक्ष्मण ने इस निर्णय का निषेध किया, अंत में वे एक बालक की भाँति रोने लगे, परंतु रामचंद्रजी अपने निर्णय से विचलित नहीं हुए। पश्चात् यह जघन्य पापकर्म करने के लिए उन्होंने मुझ पापात्मा का चयन किया। अब इस घनघोर और भंयकर श्वापदों से भयकारी जंगल में आपको अकेली छोडकर लौट जाऊँगा मुझे क्षमा कीजिए आप अपने पुण्यप्रभाव से जीवित रहोगी।" सारथी के यह शब्द सुनते ही दुःखावेग के कारण सीताजी बेहोश हो गई व रथ में से गिर गई। सारथी समझ बैठा कि उनका जीवन समाप्त हुआ। अतः वह अपने आपको उनकी मृत्यु के लिए उत्तरदायी मानकर रोने लगा । कुछ समय पश्चात् वन के शीतल पवन के कारण सीताजी को होश आया किंतु वे पुनः बेहोश हो गयी। इस प्रकार वे कई बार बेहोश हुई व पुनः होश में आई। कुछ समय बाद अपने आपको संभालकर उन्होंने पूछा- "सारथी ! यह तो बताईये इस स्थान से अयोध्या कितनी दूरी पर स्थित है ?" सारथी ने कहा, "माताजी! अयोध्या तो यहाँ से कई कोस दूर है, किंतु आपका प्रश्न वर्तमान स्थिति में निरर्थक है। अपने वज्रनिर्णय से रामचंद्र को राजा लक्ष्मण भी विचलित नहीं कर सके। आपका अयोध्या www.jainelibrary.org

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