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व इंद्रजित ने मध्यस्थी करके दोनों को पृथक् किया। तब रावण ने कहा, "अरे, श्वान व सूकर भी अपने अन्नदाता के उपकारों को नहीं भूलते और सदा सर्वदा उनका साथ देते हैं। तुम अपने ज्येष्ठ भ्राता के उपकारों को भूल गए ! तुम तो श्वान सूकरों से भी गए बीते हो.... चले जाओ यहाँ से! मुझे न तुम्हारी सहायता चाहिये, न मंत्रणा !” भ्राता रावण के यह कटु वचन सुनकर बिभीषण रामचंद्रजी की तरफ रवाना हो गया।
सेना सहित बिभीषण को अपनी ओर आते देखकर सुग्रीवादि सुभट चिंतित एवं क्षुब्ध बन गए अचानक विशाल नामक विद्याधर ने कहा, “राक्षसों में बिभीषण धर्मात्मा है। सीता मुक्ति के लिए उसके प्रयत्नों के कारण अत्यंत क्रोधित होकर क्रूर रावण ने इसे निकाल दिया है। अतः वह रामचंद्रजी की शरण में आया है।" राम के समीप आते ही बिभीषण राम के चरणों पर नतमस्तक हुआ। राम ने उसे उठाकर आलिंगन दिया। बिभीषण ने कहा “अपने अन्यायी भ्राता को त्यागकर मैं आपकी शरण में आया । भक्त सुग्रीव की भाँति मैं भी आपका आज्ञाकारी सेवक बनने के लिए इच्छुक हूँ।” राम ने उनसे
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राक्षस सुभटों के विनाश को देखकर रावण क्रोधपूर्वक युद्ध करने लगा। रामसेना के सुभट रावण के सामने युद्ध करते करते थक गए। तब राम, रावण के समक्ष आए, किंतु उन्हें रोककर बिभीषण रावण के समक्ष आया। उसके साथ द्वंद्व आरंभ होते ही रावण बोला, "वाह रे वीर! त्रिभुवनजेता, दशरथनंदन राम ने आत्मरक्षा के लिए क्या तुम्हें मेरे समक्ष भेजा है ? तुम राजद्रोही होने से वध्य हो, किंतु तुम मेरे सहोदर हो, आज भी मेरे मन में तुम्हारे प्रति प्रेम व वात्सल्यभाव जीवित है, अतः मैं तुम्हारा वध नहीं करूँगा। कुंभकर्ण, इन्द्रजित इत्यादि सुभटों को शत्रुओं ने जकड लिया है, किंतु उन कायर रामलक्ष्मण के लिए मेरा एक ही बाण पर्याप्त होगा, आज मैं उन दोनों का वध अवश्य करूंगा, ताकि कुंभकर्णादि वीर मुक्त हो सकें"
बिभीषण ने कहा, "राम आपके साथ युद्ध करने के लिए आ ही रहे थे, किंतु मैंने उन्हें रोका, ताकि मैं पुनः एकबार आपसे मिलूँ व इस युद्ध की व्यर्थता आपको प्रकट करूँ ! अभी भी समय है। आप सीताजी को मुक्त कीजिए। मुझे न मृत्यु का भय है, न राज्य की
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कहा कि, युद्ध में विजय होने पर लंकापुरी की बागडौर आप ही को संभालनी होगी।"
हंसद्वीप में एक सप्ताह रहकर राम, सेनासहित वहाँ से लंका के लिए रवाना हो गए। वे लंका की सीमा पर पहुँचे। रावण भी अपने सैन्य के साथ सीमा पर आ पहुँचा। दोनों सेनाओं में तुमुल युद्ध हुआ । राम के सुभट नल ने हस्त को, नील ने प्रहस्त को एवं हनुमान ने वज्रोदर को मार डाला। युद्ध में अनेक सुभट यमराज के शिकार बन गये। फिर कुंभकर्ण व सुग्रीव युद्धभूमि में आये । सुग्रीव ने कुंभकर्ण को उठाकर भूमिपर पटक दिया। तब रावण ने युद्धप्रवेश किया। किंतु इंद्रजित ने उसे रोका व स्वयं सुग्रीव के साथ लडने लगा।
मेघवाहन भामंडल के साथ लड रहा था। इंद्रजित व मेघवाहन, सुग्रीव एवं भामंडल को नागपाश में बाँधने लगे। राम ने महालोचन देव का स्मरण किया। देव ने प्रसन्न होकर राम को सिंहनिनादा शक्ति, मुसल व रथ प्रदान किया। लक्ष्मण को गारुडी विद्या एवं रथ प्रदान किया । लक्ष्मण को गारुडी विद्यासमेत देखते ही सुग्रीव व भामंडल, नागपाशों से मुक्त हुए। राम की सेना में उत्साह का वातावरण फैला।
लक्ष्मण घायल
लालसा । मैं अन्याय व अपकीर्ति से बचने के लिए राम के पक्ष में गया हूँ । आप मेरे भ्राता हैं, अतः मेरे लिए सदा पूजनीय हैं। ज्येष्ठ भ्राता की हत्या का साक्षी बनने की मुझे इच्छा नहीं है। यदि आप इस क्षण सीता को मुक्त करते हैं, तो मैं इसी क्षण आप के पास आकर आपका किंकर बनकर शेष जीवन व्यतीत करूँगा! आपसे यह बात कहने के लिए ही मैं इस स्थानपर आया हूँ, अन्य किसी भी कारण से नहीं ।" अतिक्रोध के कारण रावण की सदसद्विवेक बुद्धि क्षीण हो चुकी थी। उसने सक्रोध धनुष्य का टंकार किया व बिभीषण के साथ युद्ध का आरंभ किया। उन राक्षससहोदरों के प्रहारों से धरती कंपायमान होने लगी। * अब रावण ने धरणेन्द्र द्वारा दी गई अमोघविजया नामक विद्या शक्ति हाथ में धारण की। धक् धग् शब्दों के साथ प्रज्वलित वह शक्ति वनाग्नि जैसी भीषण थी। तड़-तड् आवाज करती इस शक्ति की अग्निशिखाएँ मानो त्रिभुवन को स्वाहा करने के लिए अपनी असंख्य जिह्वाएँ लपलपा रही थी।
रावण, अष्टापदतीर्थ पर भक्ति कर रहे थे। अचानक उनके वीणा का तार टूट गया, अतः उन्होंने अपने भुजा की नस निकाल कर उस पर जोड़ दी धरणेन्द्र देव ने उनकी प्रभुभक्ति से प्रसन्न होकर उन्हें यह अमोघविजया विद्या भेट दी थी।
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