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मंदोदरी का सीता को समझाना
एक कुलीन व सती स्त्री होने पर भी मंदोदरी, पति के सुख के लिए एवं दाक्षिण्यता व मोहनीय कर्म के उदय से सीता के समीप जाकर कहने लगी, “आर्ये ! मैं रावण की राजमहिषी मंदोदरी हूँ। धन्य है आप ! क्योंकि समस्त विश्व जिनके नाम से भयभीत होता है, ऐसे प्रचंड पराक्रमी मेरे पति रावण आपके कारण बाँवरे बने हैं। यदि आप मेरे स्वामी के प्रेम को स्वीकार करोगी, तो मैं जन्मजन्मांतर के लिए आपकी दासी बनूंगी।"
क्रोधाग्नि में जलती सीता ने उत्तर दिया, “कहाँ मृगेंद्र वनराज व कहाँ लालची जंबूक ! कहाँ मेरे सुसंस्कारी पति आर्य श्रीराम और कहाँ तुम्हारे स्त्रीलंपट पति रावण ! तुम भी अपने पति की भाँति पापी हो। तुम्हारा पति परस्त्री लंपट है व तुम उसकी दूती बनकर यहाँ अनुनय करने आई हो तुम्हारा मुखदर्शन भी महापाप है। यहाँ से चली जाओ... अभी... !" इसके पश्चात् कई बार आकर रावण ने कभी दीन बनकर अपनी प्रेमभावना व्यक्त की, तो कभी विनयपूर्वक
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सीता का प्रेम पाने की चेष्टा की, किंतु पतिव्रता सीता तनिक भी विचलित नहीं हुई। फिर रावण ने सीताजी के मन में भय उत्पन्न करने के लिए उलूक (उल्लू) मार्जार (बिल्ली) पिशाच, वेताल व प्रेत आदि के उपसर्ग किये किंतु क्षत्रा सीताजी पर्वत की भाँति अविचलित रही। उनके मनमंदिर में पंचपरमेष्ठी की प्रतिष्ठापना हुई थी। पंचपरमेष्ठी, पति व धर्म इनके अलावा सीताजी के हृदय में किसी अन्य वस्तु के लिए कोई स्थान नहीं था ।
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