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चंद्रगतिराजा ने मिथिलानरेश जनक को आलिंगन दिया और मित्रतापूर्वक मधुरवाणी से कहा, “राजन् ! अनंत सद्गुण एवं स्वर्गीय लावण्य से युक्त आपकी पुत्री सीता अभी अविवाहित है, मेरा पुत्र
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चपलगति द्वारा जनक का अपहरण
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भामंडल भी रूप, यौवन व सद्गुणों से परिपूर्ण है, मेरी इच्छा है कि हमारी मित्रता और प्रगाढ बने, इसलिए आपसे अनुरोध है कि आप अपनी पुत्री का विवाह मेरे पुत्र के साथ कर दीजिए।"
रथनुपूरनरेश को उत्तर देते जनकराजा ने शालीनता पूर्वक कहा, “आपका कथन यथायोग्य है, परंतु राम के पराक्रम से प्रभावित होकर मैंने अपनी पुत्री का वाग्दान उनके साथ किया है। अतः अब उसका विवाह भामंडल के साथ कैसे हो सकता है ? कन्या का वाग्दान तो केवल एक बार ही होता है। "
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प्रत्युत्तर में चंद्रगति राजा ने कहा, “हे राजन् ! हमारे बीच जो परस्पर स्नेह है, उसमें अभिवृद्धि हो इसीलिए मैं आपको यहाँ ले आया और आपसे यथाविधि कन्या का हाथ माँगा। सीता का अपहरण हमारे लिए कोई अशक्य बात नहीं है। फिर भी आपकी विवशता मैं समझ सकता हूँ आपने राम का अतुल्य पराक्रम देखकर अपनी पुत्री उन्हें सौंपी है। अब मैं चाहता हूँ राम हमें पराजित करे और सीता का पाणिग्रहण करे। मेरे पास देवाधिष्ठित और अत्यंत तेजस्वी दो धनुष्य हैं, जिनके नाम वज्रावर्त एवं अर्णवावर्त है मैं ये दोनों धनुष्य आपको अर्पण कर हैं। रहा हूँ। जो व्यक्ति इनमें से किसी एक धनुष्यपर प्रत्यंचा लगाएगा, जित उसीकी होगी। यदि राम इस धनुष्य पर प्रत्यंचा लगाने में यशस्वी होते हैं, तो आप सीता का विवाह अवश्य उनके साथ कीजिए।" इस प्रकार राजा चंद्रगति ने जनकराजा को अपनी बात मानने के लिए विवश किया। जनकराजा ने भी कोई अन्य पर्याय न होने के कारण उनकी बात का स्वीकार किया। फिर चंद्रगतिराजा ने मिथिलानरेश को सम्मानपूर्वक बिदा किया और स्वयं सपरिवार आकर मिथिलानगरी की सीमाओं के बाहर रुक गए।
अपने प्रासाद में आकर जनकराजा ने सारा वृत्तांत अपनी पत्नी रानी विदेहा से कहा, तब वे फूटफूट कर रोने लगी। वे कहने लगी, “हन्त हन्त ! मेरा भाग्य ही निर्मम बन चुका है। वर्षो पहले भाग्य ने मेरे पुत्र को मुझ से अलग करवाया। अब क्या पुत्री के
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