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20 किसी भी प्रकार से सीता का अपहरण करेगा। अतः सीता का विवाह चंद्रगति राजा ने सत्वर नारदजी को बुलवाया, प्रेमभक्ति से राम के साथ नहीं होगा, इससे मेरा प्रतिशोध पूर्ण होगा।"
उनका आदरसत्कार किया और फिर विनयपूर्वक पूछा, "रूपयौवन
द्वारा आशीर्वादित एक कुलीन कन्या का चित्र आपने युवराज भामंडल कर्म की विचित्रता तो देखिये ! सीता ने हेतुशः नारदजी को
को बताया था। क्या आप बता सकते हैं यह कन्या कौन है ? किस मार नहीं दिलवाई थी। युवा आर्यनारी विचित्र वेशभूषावाली अज्ञात
कुल से संबंधित है ?" नारदजी ने कहा, 'हे राजन् ! यह छबी व्यक्ति से घबरा जाए, एवं उसकी चीखें सुनकर दास, दासी, रक्षक
मिथिला नरेश जनक की पुत्री सीता की है। अप्सराएँ, गंधर्वकन्याएँ व सत्वर आकर अपना कर्तव्य निभाएँ, इसमें कुछ भी अनुचित नहीं है।
नागकन्याएँ भी रूप में इस कन्या की बराबरी नहीं सीता ने योजनापूर्वक नारदजी की पिटाई करवाने के लिए षड्यंत्र तो
कर सकती, तब मानवकन्याएँ ऐसा रूप कहाँ से ला नहीं रचा था। तो ऐसी स्थिति में प्रतिशोध की भावना क्यों रखनी
सकेगी? वास्तव में यह कन्या इतनी सुंदर है कि चाहिए? परंतु मोहनीय कर्म के उदय ने सामान्यतः विवेकी कहलवाते
उसका संपूर्ण तादृश चित्र बनाने के लिए विश्व का नारदजी को विचार करने का अवसर भी न दिया। यह है कर्म की
सर्वोत्तम चित्रकार भी असमर्थ है। कोई भी कवि इस विचित्रता ! आवेश में आकर उन्होंने प्रतिशोध का संकल्प किया।
रूप को शब्दों में बाँध नहीं सकता। यह कन्या आपके परिणामतः सज्जन तथा सुशील जनकराजा और सीता पर विपदाएँ
पुत्र के लिए सर्वथा योग्य है। चंद्रगतिराजा ने अपने आ गई।
पुत्र को बुलवाकर कहा, "पुत्र ! मिथिलानरेश की नारदजी ने वस्त्र के पट पर सीताजी की एक अद्भुत छबी कन्या सीता से तुम्हारा परिणय होकर ही रहेगा, यह बनाई और वह पट युवराज भामंडल के समक्ष प्रस्तुत किया। सीताजी
मेरा वचन है। अतः तुम संपूर्णतः आश्वस्त रहो।' का रूप देखते ही युवराज मदन के पंचशरों का शिकार बन गया।
इसके पश्चात् उसने नारदजी को सादर कभी वह सारी रात सो नहीं पाता, तो कभी योगी की तरह सुनमुन
सम्मानसहित बिदा किया। बैठ जाता। आहार विहार के प्रति भी वह बेभान रहने लगा। मदन के पाँच बाण फूलों से बने हैं, परंतु वे मानव के विद्या, विवेक, संयम, सदाचार सब को क्षत-विक्षत कर देते हैं। कामराग जीव को अस्थिर फिर चंद्रगतिराजाने चपलगति विद्याधर को बना देता है। विषय के फल भविष्य में कितने भयंकर कटु होंगे, यह जनकराजा का अपहरण करने का आदेश दिया और न समझनेवाले जीव, चित्र से, जो केवल आभास है, विवेकविहीन अपनी स्थनुपुरनगरी में स्थित राजप्रासाद में उसे बन जाते हैं। अशांति के शिकार बनकर कर्मबन्ध करते हैं। अपने पुत्र लाने के लिए कहा। मिथिलानगरी पहुँचते ही की दयनीय स्थिति देखकर चंद्रगति राजा ने उसे पूछा, "हे पुत्र ! चपलगति विद्याधर ने सुलक्षणयुक्त श्वेतवर्णी अश्व क्या तुम किसी आधि - मानसिक पीडा से या शारीरिक व्याधि से
का रूप धारण किया । राजा जनक, अश्वरत्न को पीडित हो ? क्या किसीने तुम्हारी आज्ञा का भंग कर तुम्हें दुःख
देखते ही मोहित हो गए। ऐसा उत्तम अश्व अपनी पहुँचाया है ?" लज्जित भामंडल ने उत्तर नहीं दिया। चुपचाप
अश्वशाला में हो, यह लालसा उनके मनमें जगी। अधोमुख बैठा रहा।
वास्तव में देखा जाए, तो जनकराजा बड़े विवेकी कुलीन आत्माएँ गुरुजनों के सामने अपने राग-अनुराग के
थे, पर मोह, लालसा ने उन्हें भी नहीं छोडा । अन्न विषय में बातें नहीं करती। कुलमर्यादा उन्हें ऐसा अनाचार करने से की अति लालसा के कारण ही पक्षी एवं मत्स्य जाल बचाती हैं। आजके आधुनिक युग में अमर्याद व्यक्ति-स्वातंत्र्य, इस में फँस जाते हैं और कभी अपने जीवन से, तो कभी लुभावने नाम से अनाचार, अनर्थ कर रहे हैं। हमारा सामाजिक, नैतिक स्वतंत्रता से हाथ धो बैठते है। लालसा से विमोहित एवं आध्यात्मिक अधःपतन हमें दुर्गति का शिकार बना रहा है। भामंडल जनकराजा भी अश्व के पीछे पीछे गए और अंत मे कामुक अवश्य था, परंतु कुलमर्यादाओं से अनभिज्ञ नहीं था। अतः अश्वपर आरूढ हो गए। अश्व ने सत्वर छलांग निर्लज्ज न होकर उसने अपने पिता के प्रश्न का उत्तर नहीं दिया। मारी और गगनमार्ग से उड़कर सीधा चंद्रगति राजा अतः चंद्रगतिराजा ने भामंडल के मित्रों से उसके दुःख का कारण के रथनुपूर नगर पहुँच गया। यहाँ मिथिलानिवासी पूछा। तब उन्होंने नारदजी द्वारा बताये गये नारीचित्र की हकीकत उसे हाहा-कार करते रह गए। बताई।
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