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पिता का वचन सुनते राम ने सहर्ष कहा, "मेरी माताश्री कैकेयी की इच्छानुसार आपने मेरे महापराक्रमी अनुज को अपना उत्तराधिकारी बनाया है, यह सर्वथैव उचित हैं। किंतु आप समझते हैं, इससे मेरे अधिकार का उल्लंघन हुआ है, तो वह समझ मिथ्या है। क्या मेरे व्यक्तित्व में आपको कभी अविनय अथवा राज्यलालसा की अनुभूति हुई है ? कि जिसके कारण आप अधिकार के उल्लंघन की बात करने के लिए विवश हो गए ? राज्यग्रहण करने की मुझे न लालसा है, न अधिकार है। मैं तो केवल आपके श्रीचरणों का दासानुदास हूँ। यदि आपकी इच्छा हो, तो आप एक सेवक को भी राज्य दे सकते हैं।
भरत को मनाते हुए राम ने कहा, "हे अनुज ! पिताजी ने अपने ऋण से मुक्त होने के लिए तुम्हें राज्य दिया है। अतः तुम दोषी नहीं हो। पिताजी की प्रतिज्ञा का पालन करने के लिए तुम सहर्ष राज्यग्रहण करो।' भरत अश्रुभीनी आँखों से कहने लगे, "पिताश्री... भ्राताश्री ! आप दोनों उदारतापूर्वक मुझे राज्य सौंप रहे हो, किंतु मैं राजग्रहण को लौलुप्य एवं हीनत्व समझता हूँ। भ्राताश्री ! पिताजी के वचनपालन के लिए आप मुझ दीन को अपने समस्त अधिकार सौंप रहे हैं। आप परम त्यागी व परम उदार हैं। पर क्या मैं दशरथ का पुत्र एवं आपका अनुज नहीं हूँ? क्या मैं आपका अधिकार छीन सकता हूँ? नहीं... नहीं... मेरा राज्याभिषेक, असंभव !"
यह शरीर मुझे आप से मिला है, शैशव से आज तक आपने इसका भरण-पोषण किया है। शिष्टाचार सुसंस्कार मुझे आप से ही मिले हैं। मेरे तन मन धन पर आपका संपूर्ण अधिकार है। भरत और राम दोनों एक ही हैं। आप सहर्ष भरत का राज्याभिषेक कीजिये। इसमें मेरी अनुमति का प्रश्न ही उत्पन्न नहीं होता।"
तब राम ने दशरथ ने कहा- "पिताश्री ! मेरे यहाँ रहने से भरत कदापि राज्यग्रहण नहीं करेगा। अतः आप मुझे वनवास स्वीकृति की आज्ञा दीजिये। इससे भरत राज्यग्रहण करेगा व आप ऋणमुक्त होकर संयम ग्रहण कर सकेंगे।"
क्या आधुनिक युग के पुत्र की ऐसी सोच हो सकती है ? नहीं ! आज का पुत्र सब से पहले अपने अधिकार के लिए पिता से संघर्ष करेगा। हो सकें तो वह अपने पिता का स्वामित्व भी छीन ले, ताकि भविष्य में उसे ऐसे धर्मसंकट का सामना न करना पडे। आज के युग में पुत्र, पैतृक संपत्ति के लिये पिता को न्यायालय तक घसिटने में भी संकोच का अनुभव नहीं करता। अवसर्पिणी के पंचम आरे में और क्या नहीं हो सकता?
राम की पितृभक्ति तो देखिये। अपने पिता के लिए उन्होंने राजसिंहासन, राजप्रासाद और राजवैभव का पल-भर में त्याग कर दिया। राम की उदारता, निःस्पृहता का कितना मनोज्ञ दर्शन होता है।
जैनेतर रामायणों में तो कैकेयी ने दशरथ से दो वरदान माँगे थे। जिनमें भरत का राज्याभिषेक व राम के लिए वनवास माँगा था।
राम का निवेदन श्रवण कर दशरथराजा प्रसन्न हुए। उन्होंने भरत को सत्वर राज्यग्रहण करने का आदेश दिया। किंतु भरत के मन में वैराग्य जागृत हुआ था। अतः उसने कहा, "पिताश्री ! मैंने पहले ही आपके साथ दीक्षा लेने के लिए अनुमति मांगी थी। आपसे प्रार्थना है कि आप किसी भी प्रकार मेरी दीक्षा का निषेध मत कीजिए। मैं तो आप ही के साथ दीक्षा ग्रहण करूँगा।" दशरथ ने कहा, "तुम अपनी माँ की एवं मेरी आज्ञा का उल्लंघन नहीं कर सकते, तुम्हारी माताश्री को मैं ने वरदान दिया था। क्या तुम चाहते हो कि वचनभंग का पाप मेरे मस्तक पर रहें ?"
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