Book Title: Jain Ramayan
Author(s): Gunratnasuri
Publisher: Jingun Aradhak Trust

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Page 27
________________ 14 कौशल्या ने ४ व सुमित्रा ने ७ स्वप्न देखे राजगृही में नूतन राजधानी की स्थापना कर दशरथ राजा अपने परिवारजनों के साथ आनंदपूर्वक समय व्यतीत कर रहे थे। एक दिन सुतिथि, सुनक्षत्र और सुयोग का समन्वय साधकर पाँचवें देवलोक की एक दिव्य आत्मा ने राजमहिषी कौशल्या की कुखि में प्रवेश किया। महारानी ने रात्रि के अंतिम प्रहर में (१) हाथी (२) सिंह (३) चंद्रमा एवं (४) सूर्य ये चार महास्वप्न देखे। अपने पति दशरथ से उन्होंने स्वप्न का विवरण किया एवं स्वप्न का फल पूछा। स्वप्न का अर्थ स्पष्ट करते हुए दशरथ ने कहा, "हे देवी! जो स्त्री ये स्वप्न देखती है वह पुरुषो में उत्तम ऐसे बलदेव को जन्म देती है। आप के पूर्वसुकृत के फलस्वरुप आप भी शीघ्र ही बलदेव को जन्म देनेवाली है।" स्वप्नफल सुनते ही कौशल्याजी हर्ष-विभोर बन गई। उस दिन से गर्भ का योग्य भरण-पोषण हो, इसलिए वे सतत सतर्क रहने लगी। पुत्रजन्मोत्सव मनाया गया। दशरथ राजा ने जिनालयों में अरिहंत परमात्मा का स्नात्र महोत्सव, अष्टप्रकारी पूजा आदि धर्मानुष्ठान __ किए। बंदियों को कारागृहों से मुक्त किया। कमलपुष्पों में पुंडरीक नामक कमल सर्वश्रेष्ठ कहलाता है। नौ माह की अवधि संपूर्ण के पश्चात् महारानी कौशल्या ने पुंडरीक समान उत्तम लक्षणयुक्त पुत्ररत्न को जन्म दिया। पूर्णिमा के तेजस्वी एवं शीतल चन्द्रबिंब के दर्शन होते ही सागर हर्षविभोर होकर उछलता है, ठीक उसी प्रकार नवजात शिशु के मुख का अवलोकन एवं अवघ्राण करते ही राजा दशरथ का हृदय भी नर्तन करने लगा। पद्म नामक यह सर्वप्रथम दशरथपुत्र जगत में राम इस अभिधान से प्रसिद्ध हुआ। पुत्र जन्म से आनंदविभोर राजा दशरथ ने दीन दुःखियों तथा याचकों को इतना दान दिया कि मानो उनके पास कुबेर का भंडार हो। चिंतामणि रत्न के समान राजा दशरथ ने भी याचकों को इच्छित दान देकर उनसे आशीर्वाद प्राप्त किये। शुक्लपक्ष के चंद्रमा की भाँति प्रतिदिन बालकों का विकास होने लगा। प्रारंभ में स्तनपान करनेवाले और अधिकतर समय निद्रित रहनेवाले ये दो दिव्य शिशु कुछ बड़े हुए। अपने पिताश्री की गोद में खेलनेवाले वे चंचल बालक उनके केश, दाढी-मूंछे खिंचते। उनकी नटखट निर्दोष बाललीलाओं के साक्षी दशरथ एवं अन्य राजाएँ आनंद का अनुभव करते। शिशुओं की विशुद्ध मोती-सी काया, कमलपुष्प के समान कपोल और पवन के साथ अठखेलियाँ करनेवाली अलकावली (केश समुह)सब को आकर्षित करती थी। दोनों बालक सदा किसी न किसी राजा के गोद में खेलते-कूदते थे। धन्य है वे माता-पिता, जिनके घर ऐसे दिव्य बालक जन्म लें। धन्य हैं वे सब जिन्होंने उनके कोमल-स्पर्श का अनुभव किया, क्योंकि वे दोनों भविष्य काल में मोक्ष प्राप्त करनेवाली आत्माएँ थी। समस्त विश्व में शायद आनंद, यह एक ही वस्तु है जो बाँटने से बढ़ती है। राजा दशरथ के आनंद के अनगिनत प्रतिबिंब प्रजाजनों के हृदयदर्पण में दृष्टिगोचर होने लगे। पौरजन भी आनंदविभोर होकर नृत्य करने लगे, गाने लगे, कस्तुरी, केशर की छींटे उड़ने लगी। नगर की सुंदरता से अलकापुरी तथा अमरावती के वासियों के मन में कुछ समय के लिए ईर्षा की अनुभूति जरूर हुई। परंतु वे भी अपने अपने नगर में रामजन्मोत्सव मनाने लगे। शिशु राम, चंद्र के समान शीतल गौरवर्ण के थे। कुछ समय के पश्चात् महाराणी सुमित्रा की कुक्षि में देवलोक से एक महर्द्धिक देव की आत्मा च्यवन कर आई। सुमित्रा ने (१) हाथी (२) सिंह (३) सूर्य (४) चंद्र (५) अग्नि (६) लक्ष्मी तथा (७) समुद्र ये सात शुभ स्वप्न देखे । सात स्वप्नों के दर्शन का फल जब उन्होंने राजा दशरथ से पूछा, तब उत्तर में राजा ने कहा, "हे सुभगे ! हमारा पुत्र तीन खंड का शासक वासुदेव बनेगा।" यह सुनते ही सुमित्रा का मन हर्षोल्लास से प्रमुदित हुआ। योग्य समय आने पर उन्होंने एक पुत्र को जन्म दिया, जिसका नाम नारायण रखा गया। यह पुत्र, नील कमल-सा देहवर्ण वाला, लक्ष्मण नाम से प्रसिद्ध हुआ। इस बार पहले से अधिकतर उल्लास से शनैः शनैः दशरथपुत्रों ने किशोरावस्था प्राप्त की। उन्होंने अनेकविध विद्याएँ तथा कलाएँ संपूर्णतया प्राप्त की। कलाचार्य तो केवल शिक्षाप्रदान के माध्यम थे। उन बालकों ने अपने पूर्वजन्मों की साधना के बल से इन कलाओं में नैपुण्य प्राप्त किया। युवावस्था में पदार्पण करते समय वे इतने बलशाली बन चुके थे कि महान पर्वतों को एक ही मुष्टिप्रहार से चूर्णचूर्ण कर देते । कुतूहलवशात जब कभी वे अपने धनुष्यों की प्रत्यंचा खिंचते, तब ऐसा रौद्रभीषण टंकार होता, मानो कोई साक्षात् सूर्य का भेदन कर रहा हो । अपने युवापुत्रों का बाहुबल, शस्त्रास्त्रविद्या में चरमकौशल्य तथा बुद्धिबल देखकर राजा दशरथ इतने प्रभावित हो गए कि वे विचार करने लगे, "मेरे इन युवराजों के समक्ष स्वयं देव अथवा असुर टिक नहीं सकते, तो रावण क्या कर पाएगा? अब समय आया है अयोध्या पुनरागमन का!" इस प्रकार निर्भय होकर वे अपने समस्त परिवार के साथ अयोध्या पधारे। दुःख, दुर्दशा रूप राहुकेतू का ग्रहण समाप्त हुआ और दशरथ के प्रखर पराक्रम Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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