Book Title: Jain Ramayan
Author(s): Gunratnasuri
Publisher: Jingun Aradhak Trust

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Page 30
________________ जनकराजा की चिंता जनक राजा के प्रासाद में सीता बढ़ने लगी। धीरे-धीरे वह शुक्ल पक्ष के चंद्रबिंब की सोलह कला से बढ़कर पूर्णिमा के संपूर्ण विकसित चंद्र की भाँति सुंदर दीखने लगी। रूपवती सीता बुद्धिमती एवं गुणवती भी थी। सागरराज से मिलनोत्सुक अभिसारिका गंगा नदी की चंचलता उनमें थी। जल में तैरती मछलियों की सुंदरता उनके नेत्रों में थी, कमलनयना सीता में लक्ष्मीजी का राजसी वैभव तथा शारदामाँ के बुद्धिलालित्य का मनोज्ञ समन्वय दृष्टिगोचर होता था। आत्मजा सीता को देखकर जनकराजा और विदेहा रानी के हृदय कभी खुशी से झूम उठते, तो कभी अपनी त्रिलोकोत्तमा के अनुरूप वर कहाँ मिलेगा, इस बात की चिंता से ग्रस्त होते थे। परास्त हो जाती है, जनकराजा भी उसी प्रकार म्लेच्छों का आक्रमण रोकने में असमर्थ बने । म्लेच्छों द्वारा जिनमंदिरों का विनाश देखकर उनका हृदय क्षतविक्षत हो गया। ऐसी संकटबेला में मानव की परछाई भी उसका साथ छोड़ देती है, तब स्नेही स्वजनों का क्या कहना ? चिंताग्रस्त जनकराजा को अचानक राजा दशरथ का स्मरण हुआ। वन में विकसित उनकी मैत्री के संस्मरणों ने उन्हें भावुक बनाया। दशरथ में जनक ने और जनक में दशरथ ने एक सच्चे हितैषी सौहार्य का अनुभव किया था। अतः आपत्कालीन सहायता की मांग करने के लिए उन्होंने अपना दूत तुरंत अयोध्या भेजा। अर्धबर्बर अनार्य देश के आंतरंगतम आदि अनेक शासकों ने जनकराजा की भूमिपर सामूहिक आक्रमण किया। जिस प्रकार कल्पान्त के समय सागर रौद्रतांडव करते आगे बढ़ता है, पथ में चाहे नगर हो या ग्राम, अभिजनों के प्रासाद हो या आदिमजनों की झोपड़ियाँ, मानव एवं मानवनिर्मित सभ्यता को अपने विकराल भुजाओं में लपेटकर वह चलता ही रहता है। विश्व की हर शक्ति उस विनाशनृत्य के समक्ष दुतने राजा दशरथ की राजसभा में जा कर उन्हें प्रणाम किया। आतिथ्यशील दशरथ ने उसका सादर स्वागत किया और अपने नजीक बिठवाकर उसे आगमन का प्रयोजन पूछा। उत्तर में दूत ने कहा, "हे राजोत्तम! मेरे स्वामी जनकराजा के अनगिनत आप्तजन हैं किंतु आपत्काल में सहायता करनेवाले स्नेही केवल आप ही हैं। वनवास के काल में आप परस्पर मित्र बनें... सुख दुःख के पल एक साथ व्यतीत किए। इससे मेरे स्वामी को विश्वास है कि इस दुःसमय ARCHIR STAR Purni दशरथ की राजसभा में जनक राजा का दूत For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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