Book Title: Jain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 16
________________ १५१ १५१ १५४ १६२ १६३ १६५ [बारह] जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ १.६. विकल्प और अपवाद में अन्तर १४७ १.७. परिग्रहसहितलिंग अपवादलिंग १४८ १.८. प्रशस्तलिंगादिवालों का भी सचेललिंग अपवादलिंग १४९ १.९. परस्परसापेक्षता साध्यसाधकभाव के कारण १.१०. मुनि के अपवादलिंग में वस्त्रग्रहण का विधान नहीं श्वेताम्बर-आगमों का प्रामाण्य अस्वीकार्य १५४ २.१. सचेलमुक्ति का निषेध २.२. श्वेताम्बरागमों में वस्त्रग्रहण की अनुमति कारणापेक्ष, निर्दोषतापेक्ष नहीं १५५ २.३. श्वेताम्बरागम-वचनों का स्वीकरण और निरसन १५९ २.४. श्वेताम्बर-आगमों में अचेलता के उपदेश का हेतु : वस्त्रग्रहण की सदोषता २.५. श्वेताम्बरमान्य सचेलमुक्ति पर तीव्र प्रहार २.६. श्रुतसागरसूरि की भूल २.७. दिगम्बर-आगमों का प्रामाण्य स्वीकार्य ३. कवलाहार-विषयक अवर्णवाद का उदाहरण अनावश्यक ४. दिगम्बर-चन्द्रनन्दी यापनीय-चन्द्रनन्दी से भिन्न ५. दिगम्बर-दशवैकालिक श्वेताम्बर-दशवैकालिक से भिन्न १७० ६. काणू या क्राणूर् दिगम्बर-मूलसंघ का ही गण रात्रिभोजनत्यागवत दिगम्बरमत में भी मान्य ८. अथालन्दसंयमादि दिगम्बरमान्य - श्वेताम्बरग्रन्थों में अथालन्दकादि का स्वरूप - विजयोदयाटीका में अथालन्दकादि का स्वरूप - दोनों में विरोध १७८ ९. भिक्षुप्रतिमाएँ दिगम्बरमतानुकूल १०. सात घरों से भिक्षा दिगम्बरमतानुकूल १८३ ११. पुरुषवेदादि का पुण्यप्रकृतित्व दिगम्बराचार्यों को भी मान्य १२. प्रथम शुक्लध्यान दिगम्बरमतानुकूल १८८ - उपसंहार : दिगम्बराचार्य होने के प्रमाण सूत्ररूप में १६७ १६८ १६९ १७२ १७३ १७५ १७५ १७६ १८१ १८५ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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