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लक्षणों में प्रथम स्थान दिया गया ।' क्या यह सब वाक्य झूठे हैं ?
यहां हमें विवेक से कार्य लेना होगा । वस्तुस्थिति यह है कि आज तर्क का युग है और विज्ञान बिना तर्क के एक पग भी नहीं चलता । ऐसी स्थिति में क्या हम शास्त्र को बिना ननु नच किये प्रामाणिक मान सकते हैं ? यह एक आधुनिक युग का गम्भीर प्रश्न है। तर्क कहां कार्य करता है ? जहां भेद हो, जहां द्वैत हो, जहां द्रष्टा और दृश्य का ज्ञाता और ज्ञेय का विवेक हो । किन्तु धर्म हमें उस सत्य की ओर ले जाना चाहता है जहां समस्त भेद विलीन हो जाते हैं । तब वहां ऊहापोह किसका होगा और कौन करेगा ? धर्म हमें उस मूलभूत स्वभाव तक ले जाना चाहता है जहां तर्क की गति नहीं है । क्या प्रश्नों का कोई उत्तर है कि जल ठण्ठा क्यों है या आाग गर्म क्यों है ? यदि तर्क द्वारा इन प्रश्नों का उत्तर दिया जा सके, तो धर्म भी तर्क की कसौटी पर कसा जा सकेगा, क्योंकि धर्म भी तो आत्मा का स्वभाव है । स्वभाव अन्तिम होता है, उसके आगे कोई विश्लेषण नहीं हो सकता । इसीलिए पंचाध्यायी में राजमल्ल ने कहा कि स्वभाव तर्कगोचर नहीं है । उससे पहले भी महावीर ने ग्राचारांग सूत्र में कहा कि तर्क द्वारा तथ्य को नहीं जाना जा सकता और मनुस्मृति में भी कहा गया है कि जो शास्त्र को तर्क के आधार पर चुनौती देता है, वह नास्तिक है। तर्क की यह सारी निन्दा धर्म के प्रसंग में किस लिए की गई है ? इसके विपरीत श्रद्धा का बहुत अधिक गुणगान है । तो क्या इसका यह अभिप्राय है कि धर्म अन्धविश्वास सिखाता है ? ऐसा नहीं है । क्योंकि जिन परम्पराम्रों में तर्क की यह निन्दा है, उन्हीं परम्परानों में यह भी तो कहा गया है कि धर्म वही है जिसे तर्क की कसौटी पर कसा जा सके । ४ महात्मा बुद्ध ने भिक्षुओं से कहा था कि मेरी बात इसीलिये नहीं मानो कि वह मैंने कही है, बल्कि उसे विवेक की कसौटी पर कसो और यदि सच लगे तो मानो ।
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१. वेद: स्मृति: सदाचारः स्वस्य च प्रियमात्मनः । एतच्चतुर्विधं प्राहुः साक्षाद्धर्मस्य लक्षणम् ॥
२. स्वभावोऽतर्क गोचरः ।
मनुस्मृति, बम्बई, १८६४, २.१२.
पञ्चाध्यायी, इन्दौर, वी० नि० सं० २४४४, २.५३.
३. योऽवमन्येत ते मूले हेतुशास्त्राश्रयाद् द्विज: । सः साधुभिर्बहिष्कार्यो नास्तिको वेदनिन्दकः ।
४. यस्तर्केणानुसन्धत्ते स धर्मं वेद नेतरः ।
मनुस्मृति, २.११.
मनुस्मृति १२.१०६.