Book Title: Jain Jivan Darshan ki Prushtabhumi
Author(s): Dayanand Bhargav
Publisher: Ranvir Kendriya Sanskrit Vidyapith Jammu

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Page 78
________________ जहाँ ममत्व नहीं, जहाँ अहंभाव नहीं, वहाँ पीत्मा केवल एक निर्मल दर्पण है जिसकी निर्मलता को, जिसके प्रसाद को, न गन्दे पदार्थ का प्रतिबिम्ब मलिन करता है, और न निर्मल पदार्थ का प्रतिबिम्ब निर्मल बनाता है। ___ जो कर्म चेतना की स्थिति में है, उसकी बात ही दूसरी है। वस्तुतः अभी उसने अपना लक्ष्य या पहचाना नहीं है या पहचान कर भुला दिया है। उसमें अहं है, उसमें कर्तृत्व है। वह अभी पाप और पुण्य के द्वैत से ऊपर नहीं उठ सकता । उसे अभी चुनाव करना है। उसकी ममता, उसका अहं, उसे अच्छे और बुरे का विवेक देता है। उसके लिये कुछ पदार्थ अनुकूल हैं, कुछ प्रतिकूल हैं और जब प्रतिकूल पदार्थ उसके अनुकूल नहीं हो पाते तो वह इस ज्ञान चेतना से नहीं सोचता कि वह क्यों इन प्रतिकूल पदार्थों को प्रतिकूल मानता है और क्यों उन्हें अपने अनुकूल बनाना चाहता है ? वह यह नहीं समझ पाता कि ये अनुकूल पदार्थ भी अन्ततः उसके लिए बन्धन हैं, उसे इनसे ऊपर उठना है । किन्तु हम ऐसे व्यक्ति की उपेक्षा नहीं कर सकते। धर्म सबके लिए है, केवल कुछ गिने चुने लोगों के लिये नहीं है । ऐसा व्यक्ति परिस्थितियों का दास है । उसे उसकी परिस्थितियाँ जिधर चाहती हैं, उधर धकेलती हैं। किन्तु फिर भी वह अपने पुरुषार्थ से, अपने दृढ़ संकल्प से उन परिस्थितियों को दिशा दे सकता है। उन्हें बदल सकता है। और यदि वह इतना दृढ़ हो जाये कि परिस्थितियाँ पूरी ताकत लगाकर भी उसे तोड़ भले ही डालें, पर झुका न सकें, तो एक दिन विपरीत से विपरीत और कठिन से कठिन परिस्थितियों पर भी वह विजय पा सकता है, उनका स्वामी बन सकता है। यहाँ नियतिवाद हार जाता है और व्यक्ति का पुरुषार्थ जयी होता है। यह मार्ग साधकों का मार्ग है। साधक ने अन्ततोगत्वा दोनों प्रकार की परिस्थितियों पर विजय पानी है, प्रतिकूल भी और अनुकूल भी। उसे दोनों प्रकार के भावों से अपने को मुक्त करना है, अनुकूल के प्रलोभन से और प्रतिकूल के भय से । किन्तु जब तक वह यह नहीं कर पाता, इतना तो वह कर ही सकता है कि कैसी भी परिस्थिति क्यों न हो, कम से कम उस मार्ग को अपनाने से इन्कार कर दे जिस मार्ग के अपनाने से वह यह जानता है कि प्रतिकूल परिस्थितियाँ समाप्त नहीं हो जाती, प्रत्युत और भी अधिक घनीभूत हो जाती हैं। यह व्यवहार-मार्ग है, पुण्य का मार्ग है। यह साक्षात् धर्म का मार्ग नहीं है, किन्तु धर्म के मार्ग का सहायक अवश्य बन सकता है। हमारे जीवन में जितना अधिक प्रलोभन पाप का है उतना पुण्य का नहीं है। जो पाप के प्रलोभन

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